तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो। कठघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है। फंदा और जकड़ जाय बला से, पर गला छुड़ाने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे, करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न दे, हमें भूखों मरने दे, लातें खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे, लेकिन पैसा वाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पाएँ? एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार दे कर अपने जाल में फँसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपए लेने जाऊँगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा। होरी का मन भी विचलित हुआ - हाँ, यह ठीक है। 'ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव-घात देख कर ले आएँगे।' 'बस-बस, यही चाल चलो।' दूसरे दिन प्रात:काल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँड़ासा ले कर पहुँचा। उधर से सोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, कोनिया, सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छीलता था, कोई पूले बाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ से मँगरू साह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झुमका, आँखों में काजल लगाए, बूढ़े यौवन को रंगे-रंगाए आ कर बोली - पहले मेरे रुपए दे दो, तब ऊख काटने दूँगी। मैं जितना गम खाती हूँ, उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास तो मेरे सूद के होते हैं। होरी ने घिघिया कर कहा - भाभी, ऊख काट लेने दो, इसके रुपए मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा। न गाँव छोड़ कर भागा जाता हूँ, न इतनी जल्दी मौत ही आई जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपए न देगी? दुलारी ने उसके हाथ से गँड़ासा छीन कर कहा - नीयत इतनी खराब हो गई है तुम लोगों की, तभी तो बरक्कत नहीं होती। आज पाँच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपए लिए थे। तीन साल में उसके सौ रुपए हो गए, तब स्टांप लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रूपया सूद चढ़ गया था। होरी बोला - सहुआइन, नीयत तो कभी खराब नहीं की, और भगवान चाहेंगे, तो पाई-पाई चुका दूँगा। हाँ, आजकल तंग हो गया हूँ, जो चाहे कह लो।
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