होरी ने इन्हें भी चिरौरी-विनती करके विदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज दे कर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति-विरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवा कर नाव पर पहुँचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इंतजाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था। तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरजा लेते थे। खजांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काट कर असामी को देते थे। असामी कितना ही रोए, चीखे, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या बस!
होरी को एक सौ बीस रुपए मिले! उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपए सूद समेत काट कर कोई पचीस रुपए होरी के हवाले किए। होरी ने रुपए की ओर उदासीन भाव से देख कर कहा - यह ले कर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो। मेरी लिए मजूरी बहुत मिलेगी। झिंगुरी ने पचीसों रुपए जमीन पर फेंक कर कहा - लो या फेंक दो, तुम्हारी खुसी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खाईं और अभी रायसाहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपए अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपए दिए देता हूँ, नहीं एक धोला भी न देता। अगर रायसाहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे। होरी ने धीरे से रुपए उठा लिए और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जा कर पचीसों रुपए उनके हाथ पर रख दिए, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था। सोभा को इतने ही रुपए मिले थे। वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी ने घेरा। सोभा बरस पड़ा। बोला - मेरे पास रुपए नहीं हैं, तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो। पटेश्वरी ने गरम हो कर कहा - ऊख बेची है कि नहीं? 'हाँ, बेची है।' 'तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेच कर रूपया दूँगा!' 'हाँ, था तो।' 'फिर क्यों नहीं देते! और सब लोगों को दिए हैं कि नहीं?' 'हाँ, दिए हैं।' 'तो मुझे क्यों नहीं देते?' 'मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है।' पटेश्वरी ने बिगड़ कर कहा - तुम रुपए दोगे, सोभा और हाथ जोड़ कर और आज ही। हाँ, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छ: महीने को, पूरे छ: महीने को, न एक दिन बेस, न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायगा। मैं जमींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया-भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमींदार दोनों का मालिक है।
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