पटेश्वरीलाल आगे बढ़ गए। सोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा - सोभा, इसके रुपए दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गई थी। मैंने भी यही सोच कर, मन को समझाया है। सोभा ने आहत कंठ से कहा - हाँ, दे दूँगा दादा! न दूँगा तो जाऊँगा कहाँ? सामने से गिरधर ताड़ी पिए झूमता चला आ रहा था। दोनों को देख कर बोला - झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबेना को भी एक पैसा न छोड़ा! हत्यारा कहीं का! रोया, गिड़गिड़ाया, पर इस पापी को दया न आई। शोभा ने कहा - ताड़ी तो पिए हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा। गिरधर ने पेट दिखा कर कहा - साँझ हो गई, जो पानी की बूँद भी कंठ तले गई हो, तो गो-माँस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँ, मगर सच कहता हूँ, नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा? हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें, खूब पिए हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गई। बीस लिए, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है! होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी ले कर दौड़ी, सोना चिलम भर लाई, धनिया ने चबेना और नमक ला कर रख दिया और सभी आशा-भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह-हाथ धोए, कैसे चबेना खाए। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो। धनिया ने पूछा - कितने की तौल हुई? 'एक सौ बीस मिले, पर सब वहीं लुट गए, धेला भी न बचा।'
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