गोबर ने आहत स्वर में कहा - तो मैं घर में कुछ नहीं हूँ? 'तुम अपने घर में सब कुछ होगे। यहाँ तुम कुछ नहीं हो।' 'अच्छी बात है, आप बेदखली दायर कीजिए। मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवा कर रुपए दूँगा, इसी गाँव से एक सौ सहादतें दिला कर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-सादे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं। रायसाहब वहीं रहते हैं, जहाँ मैं रहता हूँ। गाँव के सब लोग उन्हें हौवा समझते होंगे, मैं नहीं समझता। रत्ती-रत्ती हाल कहूँगा और देखूँगा, तुम कैसे मुझसे दोबारा रुपए वसूल कर लेते हो।' उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूँगा हो जाता है। वही सीमेंट, जो ईंट पर चढ़ कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाए, तो मिट्टी हो जायगा। गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने उस अनीति के बख्तर को बेध डाला, जिससे सज्जित हो कर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने को शक्तिमान समझ रही थी। नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके कहा - तुम इतना गर्म क्यों हो रहे हो, इसमें गर्म होने की कौन बात है। अगर होरी ने रुपए दिए हैं, तो कहीं-न-कहीं तो टाँके गए होंगे। मैं कल कागज निकाल कर देखूँगा। अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने रुपए दिए थे। तुम निसाखातिर रहो, अगर रुपए यहाँ आ गए हैं, तो कहीं जा नहीं सकते। तुम थोड़े-से रूपयों के लिए झूठ थोड़े ही बोलोगे और न मैं ही इन रूपयों से धनी हो जाऊँगा।
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