गोबर ने चौपाल से आ कर होरी को ऐसा लथाड़ा कि बेचारा स्वार्थ-भीरु बूढ़ा रूआँसा हो गया? तुम तो बच्चों से भी गए-बीते हो, जो बिल्ली की म्याऊँ सुन कर चिल्ला उठते हैं। कहाँ-कहाँ तुम्हारी रच्छा करता फिरूँगा। मैं तुम्हें सत्तर रुपए दिए जाता हूँ। दातादीन ले तो दे कर भरपाई लिखा देना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया, तो फिर मुझसे एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदेस में इसलिए नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमा-कमा कर भरता रहूँ। मैं कल चला जाऊँगा, लेकिन इतना कहे देता हूँ, किसी से एक पैसा उधार मत लेना और किसी को कुछ मत देना। मँगरू, दुलारी, दातादीन - सभी से एक रूपया सैकड़े सूद कराना होगा। धनिया भी खाना खा कर बाहर निकल आई थी। बोली - अभी क्यों जाते हो बेटा, दो-चार दिन और रह कर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-देन का हिसाब भी ठीक कर लो, तो जाना। गोबर ने शान जमाते हुए कहा - मेरा दो-तीन रुपए रोज का घाटा हो रहा है, यह भी समझती हो। यहाँ मैं बहुत-बहुत दो-चार आने की मजूरी ही तो करता हूँ और अबकी मैं झुनिया को भी लेता जाऊँगा। वहाँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ होती है। धनिया ने डरते-डरते कहा - जैसे तुम्हारी इच्छा, लेकिन वहाँ वह कैसे अकेले घर सँभालेगी, कैसे बच्चे की देखभाल करेगी?' 'अब बच्चे को देखूँ कि अपना सुभीता देखूँ, मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता। 'ले जाने को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेस में बाल-बच्चों के साथ रहना, न कोई आगे न पीछे, सोचो कितना झंझट है।' 'परदेस में संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्माँ, और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे का गम खाओ, वही अपना। खाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूछते।' धनिया कटाक्ष समझ गई। उसके सिर से पाँव तक आग लग गई। बोली - माँ-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया? 'आँखों देख रहा हूँ।' 'नहीं देख रहे हो, माँ-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हाँ, लड़के अलबत्ता जहाँ चार पैसे कमाने लगे कि माँ-बाप से आँखें फेर लीं। इसी गाँव में एक-दो नहीं, दस-बीस परतोख दे दूँ। माँ-बाप करज-कवाम लेते हैं किसके लिए? लड़के-लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए?'
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