मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-21

पेज-220

'क्या जाने तुमने किसके लिए करज लिया? मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना।'

'बिना पाले ही इतने बड़े हो गए?'

'पालने में तुम्हारा क्या लगा? जब तक बच्चा था, दूध पिला दिया। फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया। जो सबने खाया, वही मैंने खाया। मेरे लिए दूध नहीं आता था, मक्खन नहीं बँधा था। और अब तुम भी चाहती हो, और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करजा चुकाऊँ, लगान दूँ, लड़कियों का ब्याह करूँ। जैसे मेरी जिंदगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है। मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं?

धनिया सन्नाटे में आ गई। एक क्षण में उसके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया। अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दु:ख-दरिद्र सब दूर हो गया। जब से गोबर घर आया, उसके मुख पर हास की एक छटा खिली रहती थी। उसकी वाणी में मृदुता और व्यवहारों में उदारता आ गई थी। भगवान ने उस पर दया की है, तो उसे सिर झुका कर चलना चाहिए। भीतर की शांति बाहर सौजन्य बन गई थी। ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भाँति सारे अरमान झुलस गए। उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गया? जिस नौका पर बैठ कर इस जीवन-सफर को पार करना चाहती थी, वह टूट गई थी, तो किस सुख के लिए जिए!

लेकिन नहीं! उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है। उसने कभी माँ की बात का जवाब नहीं दिया, कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया, वही खा लेता था। वही भोला-भाला, शील-स्नेह का पुतला आज क्यों ऐसी दिल तोड़ने वाली बातें कर रहा है? उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा - माँ-बाप दोनों ही उसका मुँह जोहते रहते हैं। उसने खुद ही लेन-देन की बात चलाई, नहीं उससे कौन कहता है कि तू माँ-बाप का देना चुका। माँ-बाप के लिए यही क्या कम सुख है कि वह इज्जत-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता-खाता है। उससे कुछ हो सके, तो माँ-बाप की मदद कर दे। नहीं हो सकता, तो माँ-बाप उसका गला न दबाएँगे। झुनिया को ले जाना चाहता है, खुसी से ले जाए। धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के खयाल से कहा था कि झुनिया को वहाँ ले जाने से उसे जितना आराम मिलेगा, उससे कहीं ज्यादा झंझट बढ़ जायगा। इसमें ऐसी कौन-सी लगने वाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा। हो न हो, यह आग झुनिया की लगाई है। वही बैठे-बैठे उसे यह मंतर पढ़ा रही है। यहाँ सौक-सिंगार करने को नहीं मिलता, घर का कुछ न कुछ काम भी करना ही पड़ता है। वहाँ रुपए-पैसे हाथ में आएँगे, मजे से चिकना खायगी, चिकना पहनेगी और टाँग फैला कर सोएगी। दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता है, वहाँ तो पैसा चाहिए। सुना, बाजार में पकी-पकाई रोटियाँ मिल जाती हैं। यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया है, सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है। वहाँ का दाना-पानी मुँह लगा हुआ है। यहाँ कोई पूछता न था। यह भोंदू मिल गया। इसे फाँस लिया। जब यहाँ पाँच महीने का पेट ले कर आई थी, तब कैसी म्याँव-म्याँव करती थी। तब यहाँ सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख माँगती होती। यह उसी नेकी का बदला है! इसी चुड़ैल के पीछे डाँड़ देना पड़ा, बिरादरी में बदनामी हुई, खेती टूट गई, सारी दुर्गत हो गई। और आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती है, उसी में छेद कर रही है। पैसे देखे, तो आँख हो गई। तभी ऐंठी-ऐंठी फिरती है, मिजाज नहीं मिलता। आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न! इतने दिनों बात नहीं पूछी, तो सास का पाँव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ से छीन लेना चाहती है।

 

 

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