तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना न जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंक कर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखाई और यह हाथ धो कर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे। मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़ कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खास कर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिंदूसभा की ओर से काम करने लगे, मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था। मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछ कर कहा - आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था। वकील ने समर्थन किया - जी हाँ, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी। 'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे! आपके लिए भी मुश्किल है।' मिर्जा विरक्त मन से बोले - अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा। तंखा ने पूछा - क्यों? 'मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिंदुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा।'
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