मिर्जा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सी कर, लड़कों को पढ़ा कर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पाँच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी! हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त धवनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े - बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतर कर मिर्जा जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आँखें पथरा गई थीं। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देख कर कहा - अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठा कर पहुँचा दूँ? मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन, वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि! उसकी छलाँगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब! उसे देख कर ग्लानि होती है। लकड़हारे ने पूछा - कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जा जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले- अच्छा, उठा ले। कहाँ चलेगा? 'जहाँ हुकुम हो मालिक।'
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