'नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ!' लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। 'अरे नहीं मालिक, हुजूर ने सिकार किया है, तो हम कैसे खा लें।' 'नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?' 'कोई आधा कोस होगा मालिक!' तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।' 'ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?' 'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।' लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा हो कर बोला - मैं समझ गया मालिक, हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिर्जा जी ने हँस कर कहा - बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिर्जा जी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आ कर मिर्जा से बोले - आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए?
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