|
|
मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
चौथा अध्याय- जवानी की मौत
पेज- 23
इस दुखियारी अबला का दु:ख बहुत ही करुणायोग्य था। उसकी जिन्दगी का बेड़ा लगानेवाला कोई न था दु:ख बहुत ही करुणयोग्या था उसकी जिन्दगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में सिर्फ एक बूढ़े बाप से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में जिससे अपनापा था वह परलोक सिधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई चुल्लू भर पानी देने वाला दिखाई न देता था। घर में इतनी जथा-जुगती भी न थी कि साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंडित जी को अभी-नौकरी ही करते कितने दिन हुए थे कि रुपया जमा कर लेते। जो कमाया वह खाया। पूर्णा को वह अभी वह बातें नहीं सुझी थी। अभी उसको सोचने का अवकाश ही न मीला था। हॉँ, बाहर मरदाने में लोग आपस में इस विषय पर बातचीत कर रहे थे।
दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहॉँ आज का सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा ऑंगन में बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न ऑंखों से ऑंसू बहते हैं। हॉँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, ऑंखें सूरज आयी हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।
|
|
|