मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

चौथा अध्याय- जवानी की मौत

पेज- 24

शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो गये और कई आदमियों की ऑंखों से ऑंसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत ऑंखों के लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी ऑंखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—‘अरे, यह तो अमृतराय है।

 

 

 

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