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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
पाँचवां अध्याय - अँय ! यह गजरा क्या हो गया?
पेज- 28
प्रेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर देख रही थी। यकायक मुस्कराकर बोली—सखी, तुम जानती हो मैंने तुम्हारा सिंगार क्यों किया?
पूर्णा—मैं क्या जानूँ। तुम्हारा जी चाहत होगा।
प्रेमा-इसलिए कि तुम उनके सामने इसी तरह जाओ।
पूर्णा—तुम बड़ी खोटी हो। भला मैं उनके सामने इस तरह कैसे जाऊँगी। वह देखकर दिल में क्या में क्या कहेंगे। देखनेवाले यों ही बेसिर-पैर की बातें उड़ाया करते है, तब तो और भी नह मालूम क्या कहेंगे।
थोड़ी देर तक ऐसे ही हंसी-दिल्ली की बातो-बातो में प्रेमा ने कहा-सखी, अब तो अकेले नहीं रहा जाता। क्या हर्ज है तुम भी यहीं उठ आओ। हम तुम दोनों साथ-साथ रहें।
पूर्णा—सखी, मेरे लिए इससे अधिक हर्ष की कौन-सी बात होगी कि तुम्हारे साथ रहूँ। मगर अब तो पैर फूक-फूक कर धरना होती है। लोग तुम्हारे घर ही में राजी न होंगे। और अगर यह मान भी गये तो बिना बाबू अमृतराय की मर्जी के कैसे आ सकती हूँ। संसार के लोग भी कैसे अंधे है। ऐसे दयालू पुरुष कहते हैं कि ईसाई हो गया हैं कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात निकालती है। मुझसे वह कहते थे कि मैं शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बनवानेवाला हूँ जहाँ अनाथ जहॉँ अनाथ विधवाऍं आकर रहेंगी। वहॉँ उनके पालन-पोषण और वस्त्र का प्रबन्ध किया जाएगा और उनके पढ़ना-लिखाना और पूजा-पाठ करना सिखाया जायगा। जिस आदमी के विचार ऐसे शुद्ध हों उसको वह लोग ईसाई और अधर्मी बनाते है, जो भूलकर भी भिखमंगे को भीख नहीं देते। ऐसा अंधेर है।
प्रेमा- बहिन, संसार का यही है। हाय अगर वह मुझे अपनी लौंडी बना लेते तो भी मेरा जीवन सफल हो जाता। ऐसे उदारचित्त दाता चेरी बनना भी कोई बड़ाई की बात है।
पूर्णा—तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी। काहे को बनेगी। वह तो आप तुम्हारे सेवक बनने के लिए तैयार बैठे है। तुम्हारे लाला जी ही नहीं मानते। विश्वास मानो यदि तुमसे उनका ब्याह न हुआ तो कवारे ही रहेंगे।
प्रेमा—यहॉँ यही ठान ली है कि चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।
कुछ देरे तक तो यही बातें हुआ की। जब सूर्य अस्त होने लगा तो प्रेमा ने कहा—चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावें। जब से तुम्हारा आना-जाना छूटा तब से मैं उधर भूलकर भी नहीं गयी।
पूर्णा—मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुम्हारी भावज देखेगी तो ताना मारेगी।
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