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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
सातवां अध्याय - आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी
पेज- 47
पूर्णा—नहीं, अब मै यहॉँ न ठहरूँगी। सूरज माथें पसर आ गया।
रामकली—जब तक इधर उधर जी बहले अच्छा है। घर पर तो जलते अंगारों के सिवाय और कुछ नहीं।
जब दोनो नहाकर निकली तो फिर पंडो ने छेड़नाप चाहा, मगर पूर्णा एकदम भी न रूकी। आखिर रामकली ने भी उसका साथ छोड़ना उचित न समझा। दोनो थोड़ी दूर चली होगी। कि रामकली ने कहा—क्यों बहिन, पूजा करने न चलोगी?
पूर्णा—नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी।
राम०—आज तुमको चलना पड़ेगा। तनिक देखो तो कैसे विहार की जगह है। अगर दो चार दिन भी जाओ तो फिर बिना नित्य गये जी न माने।
पूर्णा–तुम जाव, मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।
राम०—चलों चलो, बहुत इतराओ मत। दम की दम में तो लौटे आते है।
रास्ते में एक तंबोली की दूकान पड़ी। काठ के पटरों पर सुफेद भीगे हुए कपड़े बिछे थे। उस पर भॉँति-भॉँति के पान मसालों की खूबसूरत डिबियॉँ, सुगंध की शीशियॉँ, दो-तीन हरे-हरे गुलदस्ते सजा कर धरे हुए थे। सामने ही दो बड़े-बड़े चौखटेदार आईने लगे हुए थे। पनवाड़ी एक सजीया जवान था। सर पर दोपल्ली टोपी चुनकर टेडी दे रक्खी थी। बदन में तंजेब का फँसा हुआ कुर्ता था। गले में सोने की तावीजे। ऑंखो में सुर्मा, माथे पर रोरी, ओठो पर पान की गहरी लीली। इन दोनोंस्त्रियों को देखते ही बोला—सेठानी जी, पान खाती जाव।
रामकली ने चठ सर से चादर खसका दी और फिर उसको एक अनुपम भाव से ओढकर हंसते हुए नयनो से बोली—‘अभी प्रसाद नहीं पाया’।
पनवाड़ी—आवो। आवो। यह भी तो प्रसाद ही है। संतों के हाथ की चीज प्रसाद से बढ़कर होती है। यह आज तुम्हारे साथ कौन शक्ति है?
राम—यह हमारी सखी है।
तम्बोली—बहुत अच्छा जोड़ा है। धन्य् भाग्य जो दर्शन हुआ।
रामकली दुकान पर ठमक गयी और शीशे में देख देख अपने बाल सँवारने लगी। उधर पनवाड़ी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीडे फुरती से बनाये और रामकली की तरफ हाथ बढ़ाया। जब वह लेने को झुकी तो उसने अपना हाथ खींच लिया और हँसकर बोला—तुम्हारी सखी लें तो दें।
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