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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
सातवां अध्याय - आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी
पेज- 48
राम०—मुँह बनवा आओ, मुँह। (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव।
पूर्णा—मैं न खाऊँगी।
राम—तुम्हारी क्या कोई सास बैठी है जो कोसेगी। मेरी तो सास मना करती है। मगर मैं उस पर भी प्रतिदिन खाती हूँ।
पूर्णा—तुम्हारी आदत होगी मैं पान नहीं खाती।
राम—आज मेरी खातिर से खाव। तुम्हें कसम है।
रामकली ने बहुत हठ की मगर पूर्णा ने गिलौरियॉँ न लीं। पान खाना उसने सदा के लिए त्याग दिया था। इस समय तक धूप बहुत तेज़ हो गयी थी। रामकली से बोली—किधर है तुम्हारा मंदिर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी।
राम—अगर ऐसे दिन कटा जाता तो फिर रोना काहे का था।
पूर्णा चुप हो गयी। उसको फिर बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ध्यान आ गया और फिर मन में यह प्रश्न किया कि कहीं आज वह गिर पड़ते तो क्या होता। इसी सोच मे थी कि निदान रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंदिर।
पूर्णा ने चौंककर दाहिनी ओर जो देखा तो एक बहुत ऊँचा मंदिर दिखायी दिया। दरवाजे पर दो बड़े-बड़े पत्थर के शेर बने हुए थे। और सैकड़ो आदमी भीतर जाने के लिए धक्कम-धक्का कर रहे थे। रामकली पूर्णा को इस मंदिर में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि पक्का चौड़ा ऑंगन है जिसके सामने से एक अँधेरी और सँकरी गली देवी जी के धाम को गयी है। दाहिनी ओर एक बारादरी है जो अति उत्तम रीति पर सजी हुई है। यहॉँ एक युवा पुरूष पीला रेशमी कोट पहने, सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बॉँधे, तकिया-मसनद लगाये बैठा है।पेचवान लगा हुआ है। उगालदान, पानदान और नाना प्रकार की सुंदर वस्तुओं से सारा कमरा भूषित हो रहा है। उस युवा पूरूष के सामने एक सुधर कामिनी सिंगार किये विराज रही है। उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए स्वर मिला रहे है। सैकड़ो आदमी बैठे और सैकड़ो खड़े है। पूर्णा ने यह रंग देखा तो चौंककर बोली—सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है। तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?
राम—(मुस्कराकर) चुप। ऐसा भी कोई कहता है। यही तो देवी जी का मदिर है। वह बरादरी में महंत जी बैठे है। देखती हो कैसा रँगीला जवान है। आज शुक्रवार है, हर शुक्र को यहॉँ रामजनी का नाच होता है।
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