पूर्णा ने बड़े गौर से इस खत को पढ़ा और शोच के अथाह समुद्र में गोते खाने लगी। अब यह गुल खिला। महापुरूष ने वहॉँ बैठकर यह पाखंड रचा। इस धूर्मपन को देखो कि मुझसे बेर बेर कहते थे कि तुम्हारे ही ऊपर मेरा विवाह ठीक करने का बोझ है, मै बौरी क्या जानूँ कि इनके मन में क्या बात समायी है। मुझसे विवाह का नाम लेते उनको लाज नहीं होती। अगर सुहागिन बनना भाग में बादा होता तो विधवा काहे की होती। मै अब इनको क्या जवाब दूँ। अगर किसी दूसरे आदमी ने यह गाली लिखी होती तो उसका कभी मुहँ न देखती। मैं क्या सखी प्रेमा से अच्छी हूँ? क्या उनसे सुंदर हूँ?क्या उनसे गुणवती हूँ? फिर यह क्या समझकर ऐसी बाते लिखते है? विवाह करेगे। मै समझ गयी जैसा विवाह होगा। क्या मुझे इतनी भी समझ नहीं? यह सब उनकी धूर्तपन है। वह मुझे अपने घर रक्खा चाहते हैं। मगर ऐसा मुझसे कदापि न होगा। मै तो इतना ही चाहती हूँ कि कभी-कभी उनकी मोहनी मूरत का दर्शन पाया करूँ। कभी-कभी उनकी रसीली बतियॉँ सुना करूँ और उनका कुशल आनंद, सुख समाचार पाया करूँ। बस। उनकी पत्नी बनने के योग्य मै नहीं हूँ। क्या हुआ अगर हदय में उनकी सूरत जम गयी है। मै इसी घर में उनका ध्यान करते करते जान दे दूँगी। पर मोह के बस के आकर मुझसे ऐसा भारी पाप न किया जाएगा। मगर इसमें उन बेचारे का दोष नहीं है। वह भी अपने दिल से हारे हुए है। नहीं मालूम क्यों मुझ अभागिनी में उनका प्रेम लग गया। इस शहर में ऐसा कौन रईस है जो उनको लड़की देने में अपनी बड़ाई न समझे। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था कि उनकी प्रीति मुझसे लगा दी। हाय। आज की सॉँझ को वह आएगे। मेरी कलाई पर कंगन न देखेगे तो दिल मे क्या कहेंगे? कहीं आना-जाना त्याग दें तो मै बिन मारे मर जाऊँ। अगर उनका चित्त जरा भी मेरी ओर से मोटा हुआ, तो अवश्य जहर खा लूगीँ। अगर उनके मन में जरा भी माख आया, जरा भी निगाह बदली, तो मेरा जीना कठिन है।
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