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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
नौवां अध्याय - तुम सचमुच जादूगर हो
पेज- 59
बिल्लो—(बात पलट कर) इस सन्दूकचे मे’ क्या है?
पूर्णा-खोल कर देखो।
बिल्लो ने जो उसे खोला तो एक क़ीमती कंगन हरी मखमल में लपेटकर धरा था और सन्कू में संदल की सुगंध आ रही थी। बिल्लो ने उसको निकाल लिया और चाहा की पूर्णा के हथ खींच लिया और ऑंखों में ऑंसू भर कर बोली—मत बिल्लो, इसे मत पहनाओ। सन्दूक में बंद करके रख दो।
बिल्लों—ज़रा पहनो तो देखो कैसा अच्छा मालूम होता है।
पूर्णा—कैसे पहनूँ। यह तो इस बात का सूचक हो जाएगा कि उनकी बात मंजूर है।
बिल्लो-क्या यह भी इस चीठी में लिखा है?
पूर्णा—हॉँ, लिखा है कि मैं आज शाम को आऊँगा और अगर कलाई पर कंगन देखूँगा तो समझ जाऊँगा कि मेरी बात मंजूर है।
बिल्लो—क्या आज ही शाम को आऍंगे?
पूर्णा—हॉँ।
यह कहकर पूर्णा ने सिर नीचा कर लिया। नहाने कौन जाता है। खाने पीने की किसको सुध है। दोपहर तक चुपचाप बैठी सोचा की। मगर दिल ने कोई बात निर्णय न की हॉँ, -ज्यों-ज्यों सॉँझ का समय निकट आया था त्यों-त्यों उसका दिल धड़कता जाता था कि उनके सामने कैसे जाऊँगी। वह मेरी कलाई पर कंगन न देखगें तो क्या कहेंगे? कहीं रुठ कर चले न जायँ? वह कहीं रिसा गये तो उनको कैसे मनाऊँगी?मगर तबिय ता क़ायदा है कि जब कोई बात उसको अति लौलीन करनेवाली होती है तो थोड़ी देर के बाद वह उसे भागने लगती है। पूर्णा से अब सोचा भी न जाता था। माथे पर हाथ घरे मौन साधे चिन्ता की चित्र बनी दीवार की ओर ताक रही थी। बिल्लो भी मान मारे बैठी हुई थी। तीन बजे होंगे कि यकायक बाबू अमृतराय की मानूस आवाज़ दरवाजे पर बिल्लो पुकराते सुनायी दी। बिल्लो चट बाहर दौड़ी और पूर्णा जल्दी से अपनी कोठरी में घुस गयी कि दवाज़ा भेड़ लिया। उसका दिल भर आया और वह किवाड़ से चिमट कर फूट-फूट रोने लगी। उधर बाबू साहब बहुत बेचैन थे। बिल्लो ज्योंही बाहर निकली कि उन्होंने उसकी तरफ़ आस-भरी ऑंखों से देखा। मगर जब उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न न दिखायी दिया तो वह उदास हो गये और दबी आवज़ में बोली—महरी, तुम्हारी उदासी देखकर मेरा दिल बैठा जाता है।
बिल्लो ने इसका उत्तर कुछ न दिया।
अमृतराय का माथा ठनका कि जरुर कुछ गड़बड़ हो गयी। शायद बिगड़ गयी। डरते-डरते बिल्लो से पूछा—आज हमार आदमी आया था?
बिल्लो हा आया था।
अमृत—कुछ दे गया?
बिल्लो—दे क्यों नहीं गया।
अमृत तो क्या हुआ? उसको पहना?
बिल्लो—हॉँ, पहना अरे ऑंख भर के देखा तो हूई नहीं। तब से बैठी रो रही है। न खाने उठी, न गंगा जी गयी।
अमृत—कुछ कहा भी। क्या बहुत खफ़ा है?
बिल्लो—कहतीं क्या? तभी से ऑंसू का तार नहीं टूटा।
अमृतराय समझ गये कि मेरी चाल बुरी पड़ी। अभी मुझे कुछ दिन और धीरज रखना चाहिए था। वह जरुर बिगड़ गयीं। अब क्या करुँ? क्या अपना-सा मुँह ले के लौट जाऊँ? या एक दफा फिर मुलाकात कर लूँ तब लौट जाऊँ कैसे लौटूँ। लौटा जायगा? हाय अब न लौटा जायगा। पूर्णा तू देखने में बहुत सीधी और भोली है, परन्तु तेरा हृदय बहुत कठोर है। तूने मेरी बातों का विश्वास नहीं माना तू समझती है मैं तुझसे कपट कर रहा हूँ। ईश्वर के लिए अपने मन से यह शंका निकाल डाल। मैं धीरे-धीरे तेरे मोह में कैसा जकड़ गया हूँ कि अब तेरे बिना जीना कठिन है। प्यारी जब मैंने तुझसे पहल बातचीत की थी तो मुझे इसकी कोई आशा न थी कि तुम्हारी मीठी बातों और तुम्हारी मन्द मुस्कान का ज़ादू मुझ पर ऐसा चल जायगा मगर वह जादू चल गया। और अब सिवाय तुम्हारे उसे और कौन अतार सकता है। नहीं, मैं इस दरवाज़े से कदापि नहीं हिलूँगा। तुम नाराज़ होगी। झल्लाओगी। मगर कभी न कभी मुझ पर तरस आ ही जायगा। बस अब यही करना उचित है । मगर देखी प्यारी, ऐसा न करना कि मुझसे बात करना छोड़ दो। नहीं तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं। क्या तुम हमसे सचमुच नाराज़ हो। हाय क्या तुम पहरों से इसलिए रो रही हो कि मेरी बातों ने तुमको दुख दिया।
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