मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

दसवाँ अध्याय - विवाह हो गया

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यह ऑंखों देखी बात है कि बहुत करके झुठी और बे-सिर पैर की बातें आप ही आप फैल जाया करती है। तो भला जिस बात में सच्चाई नाममात्र भी मिली हो उसको फैलते कितनी देर लगती है। चारों ओर यही चर्चा थी कि अमृतराय उस विधवा ब्राह्मणी के घर बहुत आया जाया करता है। सारे शहर के लोग कसम खाने पर उद्यत थे कि इन दोनों में कुछ सॉँठ-गॉँठ जरुर है। कुछ दिनों से पंडाइन औरचौबाइन आदि ने भी पूर्णा के बनाव-चुनाव पर नाक-भौं चढ़ाना छोड़ दिया था। क्योंकि उनके विचार में अब वह ऐसे बन्धनों की भागी थी। जो लोग विद्वान थे और हिन्दुस्तान के दूसरे देशों के हाल जानते थे उनको इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं यह दोनों नियोग न करे लें। हज़ारों आदमी इस घात मे थे कि अगर कभी रात को अमृतराय पूर्णा की ओर जाते पकड़े जायँ तो फिर लौट कर घर न जाने पावें। अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयत की सफाई पर विश्वास रखता था तो वह प्रेमा थी। वह बेचारी विराहग्नि में जलते-जलते कॉँटा हो गई थी, मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में वैसी ही बनी हुई थी। उसके दिल में कोई बैठा हुआ कह रहा था कि तेरा विवाह उनसे अवश्य होगौ। इसी आशा पर उसके जीवन का आधार था। वह उन लोगों में थी जो एक ही बार दिल का सौदा चुकाते है।
आज पूर्णा से वचन लेकर बाबू साहब बँगले पर पहुँचने भी न पाये थे कि यह ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी और शाम होते-होते सारे शहर में यही बात गूँजने लगी। जो कोई सुनता उसे पहले तो विश्वास न आता। क्या इतने मान-मर्यादा के ईसाई हो गये हैं, बस उसकी शंका मिट जाती। वह उनको गालियॉँ देता, कोसता। रात तो किसी तरह कटी। सवेरा होते ही मुंशी बदरीप्रसाद के मकान पर सारे नगर के पंडित, विद्वान ध्नाढ़य और प्रतिष्ठित लोग एकत्र हुए और इसका विचार होने लगा कि यह शादी कैसे रोकी जाय।
पंडित भृगुदत्त—विधवा विवाह वर्जित हैं कोई हमसे शास्त्रर्थ कर ले। वेदपुराण में कहीं ऐसा अधिकार कोई दिखा दे तो हम आज पंडिताई करना छोड़ दें।
इस पर बहुत से आदमी चिल्लाये, हॉँ, हॉँ, जरुर शास्त्रार्थ हो।
शास्त्रर्थ का नाम सुनते ही इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी बग़लों में पोथियां दबाये, सिर घुटाये, अँगोछा कँधे पर रक्खे, मुँह में तमाकू भरे, इकट्टे हो गये और झक-झक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रर्थ हो। पहले यह श्लोक पूछा जाय। उसका यह उत्तर दें तो फिर यह प्रश्न किया जावे। अगर उत्तर देने में वह लोग साहित्य या व्याकरण में ज़रा भी चूके तो जीत हमारे हाथ हो जाय। सैंकड़ों कठमुल्ले गँवार भी इसी मण्डली में मिलकर कोलाहल मचा रहे थे। मुँशी बदरीप्रसाद ने जब इनको शास्त्रर्थ करने पर उतारु देखा तो बोले—किस से करोगे शास्त्रार्थ? मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?

 

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