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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
दसवाँ अध्याय - विवाह हो गया
पेज- 62
सेठ धूनीमल—बिना शास्त्रार्थ किये विवाह कर लेगें (धोती सम्हाल कर) थाने में रपट कर दूँगा।
ठंकुर जोरावर सिंह—(मोछों पर ताव देकर) कोई ठट्ठा है ब्याह करना, सिर काट डालूँगा। लोहू की नदी बह जायगी।
राव साहब—बारता की बारात काट डाली जायगी।
इतने में सैकड़ों आदमी और आ डटे। और आग में ईधन लगाने लगे।
एक—ज़रुर से ज़रुर सिर गंजा कर दिया जाए।
दूसरा—घर में आग लगा देंगे। सब बारात जल-भुन जायगी।
तीसरा—पहले उस यात्री का गला घोंट देंगे।
इधर तो यह हरबोंग मचा हुआ था, उधर दीवानखाने में बहुत से वकील और मुखतार रमझल्ला मचा रहे थे। इस विवाह को न्याय विरुद्ध साबित करने के लिए बड़ा उद्योग किया जा रहा था। बड़ी तेज़ी से मोटी-मोटी पुस्तकों के वरक उलटे जा रहे थे। बरसों की पुरानी-धुरानी नज़ीरे पढ़ी जा रही थी कि कहीं से कोई दाँव-पकड़ निकल आवे। मगर कई घण्टे तक सर ख़पाने पर कुछ न हो सका। आखिर यह सम्मति हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय का धमकावें। अगर इस पर भी वह न मानें तो जिस दिन बारात निकले सड़क पर मारपीट की जाय। इस प्रस्ताव के बाद न मानों तो विसर्जन हुई। बाबू अमृतराय बयाह की तैयारियों में लगे हुए थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का पत्र पहुँचा। उसमें लिखा था—
‘बाबू अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह का सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे। आगे हमने सुना है कि आप किसी विधवा ब्राह्मणी से विवाह करने वाले है। हम आपसे कहे देते हैं कि भूल कर भी ऐसा न कीजिएगा। नहीं तो आप जाने और आपका काम।’
ज़ोरावर सिंह एक धनाढ़य और प्रतिष्ठित आदमी होने के उपरान्त उस शहर के लठैंतों औरबॉँके आदमियों का सरदार था और कई बेर बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। असकी धमकी ऐसी न थी कि अमृतराय पर उसका कुछ असर न पड़ता। चिट्ठी को देखते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचना लगे कि ऐसी कौन-सी चाल चलूँ कि इसको अपना आदमी बना लूँ कि इतने में दूसरी चिट्ठी पहुँची। यह गुमनाम थी और सका आशा भी पहली चिट्ठी से मिलता था। इसके बाद शाम होते-होते सैंकड़ो गुमनाम चिट्टियॉँ आयीं। कोई की कहता था कि अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लगा देंगे। कोई सर काटने की धमकी देता था। कोई पेट में छुरी भोंकने के लिए तैयार था। ओर कोई मूँछ के बात उखाड़ने के लिए चुटकियॉँ गर्म कर रहा था। अमृतराय यह तो जानते कि शहरवाले विरोध अवश्य करेंगे मगर उनको इस तरह की राड़ का गुमान भी न था। इन धमकियों ने ज़रा देर के लिए उन्हें भय में डाल दिया। अपने से अधिक खटका उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं यही सब दुष्ट उसे न कोई हानि पहुँचावें। उसी दम कपड़े पहिन, पैरगाड़ी पर सवांर होकर चटपट मजिस्ट्रेट की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे पूरा-पूरा वृत्तान्त कहा। बाबू साहब का अंग्रेंजों में बहुत मान था। इसलिए नहीं कि वह खुशामदी थे या अफसरों की पूजा किया करते थे किन्तु इसलिए कि वह अपनी मर्यादा रखना आप जानते थे। साहब ने उनका बड़ा आदर किया। उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनी। सामाजिक सुधार की आवश्कता को माना और पुलिस के सुपरिण्टेण्डेट को लिखा कि आप अमृतराय की रक्षा के वास्ते एक गारद रवाना कीजिए और ख़बर लेते रहिए कि मारपीट, खूनखराब न हो जाय। सॉँझ होते—होते तीस सिपाहियों का एक गारद बाबू साहब के मकान पर पहुँच गया, जिनमें से पॉँच बलवान आदमी पूर्णा के मकान की हिफ़ाजत करने के लिए भेज गये।
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