मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध

पेज- 67

मेहमानों के बिदा हो जाने के बाउ यह आशा की  जाती थी कि विरोधी लोग अब सिर न उठायेंगे। विशेष इसलिए कि ठाकुर जोरावार सिंह और मुंशी बदरीप्रसाद के मर जाने से उनका बल बहुत कम हो गया था। मगर यह आशा पूरी न हुई। एक सप्ताह भी न गुज़रने पाया था कि और अभी सुचित से बैठने भी न पाये थे कि फिर यही दॉँतकिलकिल शुरु हो गयी।
अमृतराय कमरे में बैठे हुए एक पत्र पढ़ रहे थे कि महराज चुपके से आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। अमृतराय ने सर उठाकर उसको देखा तो मुसकराकर बोले—कैसे चले महाराज?
महराज—हजूर, जान  बकसी होय तो कहूँ।
अमृत—शौक से कहो।
महराज—ऐसा न हो कि आप रिसहे हो जायँ।
अमृत—बात तो कहो।
महराज—हजूर, डर लगती है।
अमृत—क्या तनख्वाह बढ़वाना चाहते हो?
महराज—नाहीं सरकार
अमृत—फिर क्या चाहते हो?
महराज—हजूर,हमारा इस्तीफा ले लिया जाय।
अमृत—क्या नौकरी छोड़ोगे?
महराज—हॉँ सरकार। अब हमसे काम नहीं होता।
अमृत—क्यों, अभी तो मजबूत हो। जी चाहे तो कुछ दिन आराम कर लो। मगर नौकरी क्यों छोड़ों महराज—नाहीं सरकार, अब हम घर को जाइब।
अमृत—अगर तुमको यहॉँ कोई तकलीफ़ हा तो ठीक-ठीक कह दो। अगर तनख्वाह कहीं और इसके ज्यादा मिलने की आशा हो तो वैसा कहो।
महराज—हजूर, तनख्यावह जो आप देते हैं कोई क्या माई का लाल देगा।
अमृतराय—फिर समझ में नहीं आता कि क्यों नौकरी छोड़ना चहाते हो?
महराज—अब सरकार, मैं आपसे क्या कहूँ। यहॉँ तो यह बातें हो रही थीं उधर चम्मन व रम्मन कहार और भगेलू व दुक्खी बारी आपस में बातें कर रहे थे।

 

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