मुंशी प्रेमचंद

प्रेमा

दूसरा अध्याय- जलन बुरी बला है

पेज- 7

लाला बदरीप्रसाद अमृतराय के बाप के दोस्तों में थे और अगर उनसे अधिक प्रतिष्ठित न थे तो बहुत हेठे भी न थे। दोनो में लड़के-लड़की के ब्याह की बातचीत पक्की हो गयी थी। और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी और जीते तो बेटे का सेहरा देख लेते। मगर कालवश हो गये। और यह अर्मान मन मे लिये वैकुण्ठ को सिधारे। हां, मरते मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी कि मु० बदरीप्रसाद की लड़की से अवश्य विवाह करना। अमृतराय ने भी लजाते लजाते बात हारी थी। मगर मुंशी धनपतराय को मरे आज पॉंच बरस बीत चुके थे। इस बीच में उन्होने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे खासे अंग्रेज बन बैठे थे। इस परिवर्तन ने पब्लिक की ऑंखो में उनका आदर घटा दिया  था। इसके विपरीत बदरीप्रसाद पक्के हिन्दू थे। साल भर, बारहों मास, उनके यहां श्रीमद्भागवत की कथा हुआ करती थी। कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडार में सौ पचास साधुओं का प्रसाद न बनता हो। इस उदारता ने उनको सारे शहर मेंसव्रप्रिय बना दिया था। प्रतिदिन भोर होते ही, वह गंगा स्नान को पैदल जाया करते थे ओर रास्ते में जितने आदमी उनको देखते सब आदर से सर झुकाते थे और आपस में कानाफुसी करते कि दुखियारों का यह दाता सदा फलता फूलता रहे।
यद्यपि लाला बदरीप्रसाद अमृतराय की चाल-ढाल को पसंद न करते थे और कई बेर उनको समझा कर हार भी चुके थे, मगर शहर में ऐसा होनहार, विद्यावान, सुंदर और धनिक कोई दूसरा आदमी न था जो उनकी प्राण से अधिक प्रिय लड़की प्रेमा के पति बनने के योग्य हो। इस कारण वे बेबस हो रहे थे। लड़की अकेली थी, इसलिए दूसरे शहर में ब्याह भी न कर सकते थे। इस लड़की के गुण और सुंदरता की इतनी प्रशंसा थी कि उस शहर के सब रईस उसे चाहते थे। जब किसी काम काज के मौके पर प्रेमा सोलहों श्रंगार करके जीती तो जितनी और स्त्रियॉँ वहॉँ होतीं उसके पैरों तले आंखे बिछाती। बडी बूढी औरतें कहा करती थी कि ऐसी सुंदर लड़की कहीं देखने में नहीं आई। और जैसी प्रेमा औरतों में थी वैसे ही अमृतराय मर्दो में थे। ईश्वर ने अपने हाथ से दोनों का जोड़ मिलाया था।

 

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