लाला बदरीप्रसाद अमृतराय के बाप के दोस्तों में थे और अगर उनसे अधिक प्रतिष्ठित न थे तो बहुत हेठे भी न थे। दोनो में लड़के-लड़की के ब्याह की बातचीत पक्की हो गयी थी। और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी और जीते तो बेटे का सेहरा देख लेते। मगर कालवश हो गये। और यह अर्मान मन मे लिये वैकुण्ठ को सिधारे। हां, मरते मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी कि मु० बदरीप्रसाद की लड़की से अवश्य विवाह करना। अमृतराय ने भी लजाते लजाते बात हारी थी। मगर मुंशी धनपतराय को मरे आज पॉंच बरस बीत चुके थे। इस बीच में उन्होने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे खासे अंग्रेज बन बैठे थे। इस परिवर्तन ने पब्लिक की ऑंखो में उनका आदर घटा दिया था। इसके विपरीत बदरीप्रसाद पक्के हिन्दू थे। साल भर, बारहों मास, उनके यहां श्रीमद्भागवत की कथा हुआ करती थी। कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडार में सौ पचास साधुओं का प्रसाद न बनता हो। इस उदारता ने उनको सारे शहर मेंसव्रप्रिय बना दिया था। प्रतिदिन भोर होते ही, वह गंगा स्नान को पैदल जाया करते थे ओर रास्ते में जितने आदमी उनको देखते सब आदर से सर झुकाते थे और आपस में कानाफुसी करते कि दुखियारों का यह दाता सदा फलता फूलता रहे।
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