मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध

पेज- 76

ठाकुर-  सुना काहे नहीं,  बाकी फिर काव करी।
मिश्र जी- इतना  तो हम कहित है  कि अस वकिल पिरथी भर में नाहीं ना।
ठाकुर- कसबहस करत हैं मानो जिहवा पर सरस्वती बैठी होय। उनकर बराबरी   करैया आज कोई नाहीं है।
मिश्र जी- मुदा इसाई  होइ गया। रॉंड.से ब्याह किहेसि।
ठाकुर-  एतनै तो बीच परा है। अगर उनका वकील किहे होईत तो बाजी बद के  जीत जाईत।
इसी तरह दोनो में बातें हुई और दिया में बती पडतें- पडतें दोनो अमृतराय के पास गये और उनसे मुकदमें  की कुल रुयदाद बयान कि। बाबू साहब ने  पहले  ही समझ लिया था कि इस मुकदमें में  कुछ जान नहीं है। तिस पर उन्होंने मूकदमा ले लिया और दुसरे दिन एसी योग्यता से बहस की  कि दूसरी ओर के वकिल- मुखतियार खडे.मुह ताकते रह गये।  आख्रिर जीत  का सेहरा भी उन्हीं  के सिर रहा। जज साहब उनकी बकतृया पर एसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने हँसकर घन्यबाद दिया और हाथ  मिलया। बस अब क्या था । एक तो अमृतराय यों ही प्रसिद्व थे,  उस पर जज साहब का यह  वताव और भी सोने पर सुहागा हो गया । वह बँगले पर पहुँच कर चैन से बैठने भी न पाये थे, कि मुवक्किलो के दल के दल आने लगे और दस बजे रात तक यही ताता लगा रहा। दूसरे दिन से उनकी वकालत पहले से भी अधिक चमक उठी ।
द्रोहियों जब देखा कि हमारी चाल भी उलटी पडी. तो और भी दॉत पीसने लगे। अब मुंशी बदरीप्रसाद तो थे हि नहीं कि उन्हें सीधी चालें  बताते। और न ठाकुर थे कि कुछ बाहुबल का चमत्कार दिखाते । बाबू कमलाप्रसाद अपने पिता के सामने ही से इन बातो से अलग हो गये थे। इसलिये दोहियों को अपना और कुछ बस न देख कर पंडित भगुदत का द्वार खटखटाया उनसें कर जोड  कर कहा कि महाराज! कृपा-सिन्धु! अब भारत वर्ष में महा उत्पात और घोर पाप हो रहा है। अब आप ही चाहो तो उसका उद्वार हो सकता है । सिवाय आप के इस नौका  को पार लगाने वाला इस संसार में कोई नहीं है। महाराज ! अगर इस समय पूरा  बल न लगाया  तो फिर इस नगर के वासी कहीं मुह दिखाने के योग्य नहीं रहेंगे। कृपा के परनाले और धर्म के पोखरा ने जब अपने जजमानों को ऐसी दीनता से स्तुति करते देखा तो दॉत निकालकर बोले आप लोग जौन है तैन घबरायें मत। आप देखा करें कि भृगुदत क्या करते है।

 

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