मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध

पेज- 75

जज साहब एक बंगाली बाबू थे। अमृतराय के परिश्रम और तीव्रता, उत्साह और चपलता ने जज साहब की ऑंखों में उन्होंने बड़ी प्रशंसा दे रक्खी थी। वह अमृतराय की बढ़ती हुई वकालत को देख-देख समझ गये थे कि थोड़ी ही दिनों मे यह सब वकीलों का सभापति हा जाएगा। मगर जब तीन हफ्ते से उनकी सूरत न दिखायी दी तब उनको आश्चर्य हुआ। सरिश्तेदार से पूछा कि आजकल बाबू अमृतराय कहॉँ हैं। सरिश्तेदार साहब जाति के मुसलमान और बड़े सच्चे, साफ आदमी थे। उन्होंने सारा ब्योरा जो सुना था कह सुनाया। जज साहब सुनते ही समझ गये कि बेचारे अमृतराय सामाजिक कामों में अग्रण्य बनने का फल भोग रहे हैं। दूसरे दिन उन्होंने खुद अमृतराय को इजलास पर बुलवाया और देहाती ज़मींदारी के सामने उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें की। अमृतराय भी हँस-हँस उनकी बातों का जवाब दिया किये। इस बीच में कई वकीलों और बैरिस्टर जज साहब को दिखाने कि लिए कागज पत्र -  लाये मगर साहब ने किसी के ओर ध्यान नहीं दिया। जब वह चले तो  साहब ने कुसी उठकर हाथ मिलाया और जरा जोर से बोलो – बहुत अच्छा, बाबू साहब जैसा आप  बोलता है, इस मुकदमे मे वैसा ही होगा।
आज जब कचहरी बरखास्त हुई तो उन जमीदारों में जिनके मुकदमे आज पेश थे, यों गलेचौर  होने लगी।
ठाकुर साहब- ( पगडी.बॉंधे, मूछें खडी.किये, मोटासा लद्व हाथ में लिये)
आज जज साहब अमृतराय से खुब- खुब बतियात रहे।
मिश्र जी- (सिर घुटाये,टीका लगाये, मुह में तम्बाकु दाबाये और कन्घे पर अगोछा रक्खे)        
खूब ब बतियावत रहा मानो कोउ अपने मित्र से बतियावै।
ठाकुर-  अमृतराय  कस हँस- हँस मुडी  हिलावत रहा।
मिश्र जी- बडे. आदमियन का सबजगह आदर  होत है।
ठाकुर- जब लो दोनो बतियात रहे तब तलुक कउ वकील आये बाकी साहेब कोउ की ओर तनिक नाहीं ताकिन।
मिश्र जी- हम कहे देइत है तुमार मुकदमा उनहीं के  राय से चले। सुनत रहयो कि नाहीं जब अमृतराय चले लागे तो जज साहब  कहेन कि इस मुकदमे में वैसा ही होगा

 

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