जज साहब एक बंगाली बाबू थे। अमृतराय के परिश्रम और तीव्रता, उत्साह और चपलता ने जज साहब की ऑंखों में उन्होंने बड़ी प्रशंसा दे रक्खी थी। वह अमृतराय की बढ़ती हुई वकालत को देख-देख समझ गये थे कि थोड़ी ही दिनों मे यह सब वकीलों का सभापति हा जाएगा। मगर जब तीन हफ्ते से उनकी सूरत न दिखायी दी तब उनको आश्चर्य हुआ। सरिश्तेदार से पूछा कि आजकल बाबू अमृतराय कहॉँ हैं। सरिश्तेदार साहब जाति के मुसलमान और बड़े सच्चे, साफ आदमी थे। उन्होंने सारा ब्योरा जो सुना था कह सुनाया। जज साहब सुनते ही समझ गये कि बेचारे अमृतराय सामाजिक कामों में अग्रण्य बनने का फल भोग रहे हैं। दूसरे दिन उन्होंने खुद अमृतराय को इजलास पर बुलवाया और देहाती ज़मींदारी के सामने उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें की। अमृतराय भी हँस-हँस उनकी बातों का जवाब दिया किये। इस बीच में कई वकीलों और बैरिस्टर जज साहब को दिखाने कि लिए कागज पत्र - लाये मगर साहब ने किसी के ओर ध्यान नहीं दिया। जब वह चले तो साहब ने कुसी उठकर हाथ मिलाया और जरा जोर से बोलो – बहुत अच्छा, बाबू साहब जैसा आप बोलता है, इस मुकदमे मे वैसा ही होगा।
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