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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना
पेज- 83
पूर्णा—मत लछिमी (लक्ष्मी) सखी को मत छोड़ो।
लक्ष्मी—(मुसकराकर) मैंने कुछ झूठ थोड़े ही कहा था जो इनको ऐसा कडुआ मालूम हुआ।
रामकली—जैसी आप है वैसी सबको समझती है।
पूर्णा— लछिमी, तुम हमारी सखी को बहुत दिक किया करती हो। तुम्हरी बाल से वह मन्दिर में जाती थी।
लक्ष्मी—जब मैं कहती हूँ तो रोती काहे को है।
पूर्णा—अब यह बात उनको अच्छी नहीं लगती तो तुम काहे को कहती हो। खबरदार, अब फिर मन्दिर का नाम मत लेना।
लक्ष्मी—अच्छा रम्मन, हमें एक बात दो तो, हम फिर तुम्हें कभी न छेड़े—महन्त जी ने मंत्र देते समय तुम्हरे कान में क्या कहा? हमारा माथा छुए जो झूठ बोले।
रामकली—(चिटक कर) सुना लछिमी, हमसे शरारत करोगी तो ठीक न होगा। मैं जितना ही तरह देती हूँ, तुम उतनी ही सर चढ़ी जाती हो।
पूर्णा—ऐ तो बतला क्यों नहीं देती, इसमें क्या हर्ज है?
रामकली—कुछ कहा होगा, तुम कौन होती हो पूछनेवाली? बड़ी आयीं वहॉँ से सीता बन के
पूर्णा—अच्छा भाई, मत बताओ, बिगड़ती काहे को हो?
लक्ष्मी—बताने की बात ही नहीं बतला कैसे दें।
रामकली—कोई बात भी हो कि यों ही बतला दूँ।
पूर्णा—अच्छा यह बात जाने दो। बताओ उस तंबोली ने तुम्हें पान खिलाते समय क्या कहा था।
रामकली—फिर छेड़खानी की सूझी। मैं भी पते की बात कह दूँगी तो लजा जाओगी।
लक्ष्मी—तुम्हे हमार कसम सखी, जरुर कहो। यह हम लोगों की बातों तो पूछ लेती है, अपनी बातें एक नहीं कहतीं।
रामकली—क्यों सखी, कहूँ? कहती हूँ, बिगड़ना मत।
पूर्णा- कहो, सॉँच को ऑंच क्या।
रामकली—उस दिन घाट पर तुमने किस छाती से लिपटा लिया था।
पूर्णा— तुम्हारा सर
लक्ष्मी— समझ गयी। बाबू अमृतराय होंगे। क्यों है न?
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