मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना
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यह तीनों सखियॉँ इसी तरह हँस-बोल रहीं थीं कि एक बूढ़ी औरत ने आकर पूर्णा को आशीर्वाद दिया और उसके हाथ में एक खत रख दिया। पूर्णा ने अक्षर पहिचाने, प्रेमा का पत्र था। उसमें यह लिखा था—
‘‘प्यारी पूर्णा तुमसे भेंट करने को बहुत जी चाहता है। मगर यहॉँ घर से बाहर पॉँव निकालने की मजाल नहीं। इसलिए यह ख़त लिखती हूँ। मुझे तुमसे एक अति आवश्यक बात करनी है। जो पत्र में नहीं लिख सकती हूँ। अगर तुम बिल्लो को इस पत्र का जवाब देकर भेजो तो जबानी कह दूँगी। देखा देर मत करना। नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। आठ बजे के पहले बिल्लो यहॉँ अवश्य आ जाए।
तुम्हारी सखी
प्रेमा’’
पत्र पढ़ते ही पूर्णा का चित्त व्याकुल हो गया। चेहरे का रंग उड़ गया और अनेक प्रकार की शंकाएँ लगी। या नारायण अब क्या होनेवाला है। लिखती है देखो देर मत करना। नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। क्या बात है।
अभी तक वह कचहरी से नहीं लौटे। रोज तो अब तक आ जाया करते थे। इनकी यही बात तो हम को अच्छी नहीं लगती।
लक्ष्मी और रामकली ने जब उसको ऐसा व्याकुल देखा तो घबराकर बोलीं—क्या बहिन, कुशल तो है? इस पत्र में क्या लिखा है?
पूर्णा—क्या बताऊँ क्या लिखा है। रामकली, तुम जरा कमरे में जा के झॉँको तो आये या नहीं अभी।
रामकली ने आकर कहा—अभी नहीं आये।
लक्ष्मी—अभी कैसे आयेंगे? आज तो तीन आदमी व्याख्यान देने गये है। इसी घबराहट में आठ बजा। पूर्णा ने प्रेमा के पत्र का जवाब लिखा और बिल्लो को देकर प्रेमा को घर भेज दिया। आधा घंटा भी न बीता था कि बिल्लो लौट आयी। रंग उड़ा हुआ। बदहवास और घबरायी हुई। पूर्णा ने उसे देखते ही घबराकर पूछा—कहो बिल्लो, कुशल कहो।
बिल्लो (माथा ठोंककर) क्या कहूँ, बहू कहते नहीं बनता। न जाने अभी क्या होने वाला है।
पूर्णा—क्या कहा? कुछ चिट्ठी-पत्री तो नहीं दिया?
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