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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना
पेज- 90
पूर्णा को दुनिया से उठे दो वर्ष बीत गया हैं। सॉँझ का समय हैं। शीतल-सुगंधित चित्त को हर्ष देनेवाली हवा चल रही हैं। सूर्य की विदा होनेवाली किरणें खिड़की से बाबू अमृतराय के सजे हुए कमेरे में जाती हैं और पूर्णा के पूरे कद की तसवीर के पैरों को चूम-चूम कर चली जाती हैं। उनकी लाली से सारा कमरा सुनहरा हो रहा हैं। रामकली और लक्ष्मी के मुखड़े इस समय मारे आनन्द के गुलाब की तरह खिले हुए है। दोनों गहने-पाते से लौस हैं और जब वह खिड़की से भर निकालती हैं और सुनहरी किरणें उनके गुलाब-से मुखड़ों पर पड़ती है तो जान पड़ता है कि सूर्य आप बलैया ले रहा है। वह रह-रहकर ऐसी चितवनों से ताकती हैं से ताकती हैं जैसी किसी की रही हैं। यकायक रामकली ने खुश होकर कहा—सुखी वह देखों आ गये। उनके कपड़े कैसे सुन्दर मालूम देते है।
एक अति सुन्दर फिटन चम-चम करती हुई फाटक के अंदर दाखिल होती है और बँगले के बरामदे में आकर रुकती है। बाबू अमृतराय उसमें से उतरते हैं। मगर अकेले नहीं। उनका एक हाथ प्रेमा के हाथ में है। यद्यपि बाबू साहब का सुन्दर चेहरा कुछ पीला हो रहा है। मगर होंठों पर हलकी-सी मुसकराहट झलक रही है और माथे पर केशर का टीका और गले में खूबसूरत हार और शोभा बढ़ा रहे हैं।
प्रेमा सुन्दरता की मूरत और जवानी की तस्वीर हो रही है। जब हमने उसको पिछली बार देखा था तो चिन्ता और दुर्बलता के चिह्न मुखड़े से पाये जाते थे। मगर कुछ और ही यौवन है। मुखड़ा कुन्दन के समान दमक रहा है। बदन गदराय हुआ है। बोटी—बोटी नाच रही है। उसकी चंचलता देखकर आश्चर्य होता है कि क्या वही पीली मुँह और उलझे बाल वाली रोगिन है। उसकी ऑंखों में इस समय एक घड़े का नशा समाया हुआ है। गुलाबी जमीन की हरे किनारेवाली साड़ी और ऊदे रंग की कलोइयों पर चुनी हुई जाकेट उस पर खिल रही है। उस पर गोरी-गारी कलाइयों में जड़ाऊ कड़े बालों में गुँथे हुए गुलाब के फूल, माथे पर लाल रोरी की गोल-बिंदी और पॉँव में जरदोज के काम के सुन्दर में सुहागा हो रहे हैं। इस ढ़ग के सिंगार से बाबू साहब को विशेष करके लगाव है क्योंकि पूर्णा देवी की तसवीर भी ऐसी ही कपड़े पहिने दिखायी देती है और उसे देखकर कोई मुश्किल से कह सकता हैं कि प्रेमा ही की सुरत आइने में उत्तर कर ऐसा यौवन नहीं दिखा रही हैं।
अमृतराय ने प्रेमा को एक मखमली कुर्सी पर बिठा दिया और मुसकरा कर बोले—प्यारी प्रेमा आज मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन है।
प्रेमा ने पूर्णा की तसवीर की तरफ मलिन चितवनों से देखकर कहा—हमारी ज़िन्गी का क्यों नही कहते?
प्रेमा ने यह कहा था कि उसकी नजर एक लाल चीज पर जा पड़ी जो पूर्णा की तसवीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीर पर धरी हुई थी। उसने लपककर उसे उठा लिया। और ऊपर का रेशमी गिलाफ हटाकर देखा तो पिस्तौल था।
बाबू अमृतराय ने गिरी हुई आवाज में कहा—यह प्यारी पूर्णा की निशानी है, इसी से उसने मेरी जान बचायी थी।
यह कहते—कहते उनकी आवाज कॉँपने लगी।
प्रेमा ने यह सुनकर उस पिस्तौला को चूम लिया और फिर बड़ी लिहाज के साथ उसी जगह पर रख दिया।
इतने में दूसरी फ़िटन दाखिल होती है। और उसमें से तीन युवक हँसते हुए उतरते हैं। तीनों का हम पहचानते है।
एक तो बाबू जीवननाथ हैं, दूसरे बाबू प्राणनाथ और तीसरे प्रेमा के भाई बाबू कमलाप्रसाद हैं।
कमलाप्रसाद को देखते ही प्रेमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई, जल्दी से घूघँट निकाल कर सिर झुका लिया।
कमलाप्राद ने बहिन को मुसकराकर छाती से लगा लिया और बोले—मैं तुमको सच्चे दिल से मुबारबाद देता हूँ।
दोनों युवकों ने गुल मचाकर कहा—जलसा कराइये जलसा, यो पीछा न छूटेगा।
समाप्त
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