सिंहासन-बत्तीसी एक दिन विक्रमादित्य अपने बगीचे में बैठा हुआ था। वसन्त ऋतु थी। टेसू फूले हुए थे। कोयल कूक रही थी। इतने में एक आदमी राजा के पास आया। उसका शरीर सूखकर काँटा हो रहा था। खाना पीना उसने छोड़ दिया था, आँखों से कम दीखता था। व्याकुल होकर वह बार-बार रोता था। राजा ने उसे धीरज बँधाया और रोने का कारण पूछा। उसने कहा, "मैं कालिंजर का रहनेवाला हूँ। एक यती ने बताया कि अमुक जगह एक बड़ी सुन्दर स्त्री तीनों लोकों में नहीं है। लाखों राजा-महाराज और दूसरे लोग आते हैं। उसके बाप ने एक कढ़ाव में तेल खौलवा रक्खा है। कहता है कि कढ़ाव में स्नान करके जो जिंदा निकल आयगा, उसी के साथ वह अपनी पुत्री का विवाह करेगा। बहुत जल चुकें है। जबसे उस स्त्री को देखा है, तबसे मेरी यह हालत हो गई है।" राजा ने कहा, "घबराओ मत। कल हम दोनों साथ-साथ वहाँ चलेंगे।" अगले दिन राजा ने स्नान पूजा आदि से छुट्टी पाकर दोनों वीरों को बुलाया। राजा के दोनों वीरों ने यह देखा तो अमृत ले आये और जैसे ही राजा पर छिड़का, वह जी उठा। फिर क्या था ! सबको बड़ा आनन्द हुआ। राजकन्या का विवाह राजा राजा के साथ जो आदमी गया था, वह अब भी साथ था। राजा ने उस स्त्री को बहुत-से माल-असबाब सहित उसे दे दिया। राजकन्या ने हाथ जोड़कर राजा से कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया। मेरे बाप ने ऐसा पाप किया था कि वह नरक में जाता और मैं उम्र भर क्वांरी रहती।" इतना कहकर पुतली बोली, "देखा तुमने ! राजा विक्रमादित्य ने कितना पराक्रम करके पाई हुई राजकन्या को दूसरे आदमी को देते तनिक भी हिचक न की । तुम ऐसा कर सकोगे तभी सिंहासन पर बैठने के योग्य होगें।" राजा रूक गया। पुतली ने अपनी बात सुनायी।
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