सिंहासन-बत्तीसी एक बार राजा विक्रमादित्य ने होम किया। ब्राह्मण आये, सेठ-साहूकार आये, देश-देश के राजा आये। यज्ञ होने लगा। तभी एक ब्राह्मण मन की बात जान लेता था। उसने आशीर्वाद दिया, "हे राजन्! तू चिरंजीव हो।" जब मन्त्र पूरे हुए तो राजा ने कहा, "हे ब्राह्मण ! तुमने बिना दण्डवत् के आशीर्वाद दिया, यह अच्छा नहीं किया- इस पर राजा ने उसे और अधिक धन दिया। यज्ञ में और जो लोग आये थे। उन्हें भी खुले हाथ दान दिया। इतना कहकर पुतली बोली, "राजन् ! तुम सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं। शेर की बराबरी सियार नहीं कर सकता, हंस के बराबर कौवा नहीं हो सकता, बंदर के गले में मोतियों की माला नहीं सोहती। तुम सिंहासन पर बैठने का विचार छोड़ दो।"
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