सिंहासन-बत्तीसी

कहानी 15

एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठे हुए थे। कहीं से एक पंडित आया। उसने राजा को एक श्लोक सुनाया। उसका भाव था कि जबतक चांद और सूरज हैं, तबतक विद्रोही और विश्वासघाती कष्ट पायेंगे। राजा ने उसे एक लाख रुपये दिये और कहा कि इसका मर्म मुझे समझाओ। ब्राह्मण ने कहा, ‘‘महाराज! एक बूढ़ा अज्ञानी राजा था। उसके एक रानी थी, जिसे वह बहुत प्यार करता था। हमेशा साथ रखता था। दरबार में भी उसे साथ बिठाता था। एक दिन उसके दीवान ने कहा, ‘‘महाराज! ऐसा करना अच्छा नहीं है। लोग हँसते हैं। अच्छा हो कि आप रानी का एक चित्र बनवाकर सामने रख लें।’’ राजा को यह सलाह पसन्द आयी। उसने एक बड़े होशियार चित्रकार को बुलवाया। वह चित्रकार ज्योतिष भी जानता था। उसने राजा के कहने पर एक बड़ा ही सुंदर चित्र बना दिया। राजा को वह बहुत पसंद आया। लेकिन जब उसी निगाह टांग पर गई तो वहाँ एक तिल था। राजा को बड़ा गुस्सा आया कि रानी का यह तिल इसने कैसे देखा।

          उसने उसी समय चित्रकार को बुलवाया और जल्लाद को आज्ञा दी कि जंगल में ले जाकर उसकी आंखें निकाल लाओ। जल्लाद लेकर चले। आगे जाकर दीवान ने जल्लादों को रोका और कहा कि इसे मुझे दे दो और हिरन की आंखें निकालकर राजा को दे दो। जल्लादों ने ऐसा ही किया। जब वे आंखें लेकर आये तो राजा ने कहा, ‘‘इन्हें नाली में फेंक दो।’’

          उधर एक दिन राजा का बेटा जंगल में शिकार खेलने गया। सामने एक शेर को देखकर वह डर के मारे पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ पहले से ही एक रीछ बैठा था। उसे देखते ही उसके प्राण सूख गये। रीछ ने कहा, ‘‘तुम घबराओ नहीं। मैं तुम्हें नहीं, खाऊँगा, क्योंकि तुम मेरी शरण में आये हो।’’ जब रात हुई तो रीछ बोला, ‘‘हम लोग दो-दो पहर जाग पहरा दें, तभी इस शेर से बच सकेंगे। पहले तुम सो लो।’’

               राजकुमार सो गया। रीछ चौकसी करने लगा। शेर नीचे से बोला, ‘‘तुम इस आदमी को नीचे फेंक दो। हम दोनों खा लेंगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो जब इस आदमी की पहरा देने की बारी आयगी, तब यह तेरा सिर काटकर गिरा देगा।’’ रीछ ने कहा, ‘‘राजा के मारने में, पेड़ के काटने में, गुरु से झूठ बोलने में, और जंगल जलाने में बड़ा पाप लगता है। उससे ज्यादा पाप विद्रोह और विश्वासघात करने में लगता है। मैं ऐसा नहीं करुँगा।’’      

आधी रात होने पर राजकुमार जागा और रीछ सोने लगा। शेर ने उससे भी वही बात कहीं। बोला, ‘‘तू इसका भरोसा मत कर। सवेरा होते ही यह तुझे खा जायगा।’’

राजकुमार उसकी बातों में आ गया और इतने जोर से पेड़ को हिलाया कि रीछ गिर पड़े। इतने में रीछ की आंखें खुल गईं और वह एक टहनी से लिपट गया। बोला, ‘‘तू बड़ा पापी है। मैंने तेरी जान बचाई और तू मुझे मारने को तैयार हो गया। अब मैं तुझे खा जाऊँ तो तू क्या कर लेगा!’’
          राजकुमार के हाथ-पाँव फूल गये। खैर, सवेरे शेर तो चला गया और इधर रीछ राजकुमार को गूँगा-बहरा बनाकर चलता बना।

          राजकुमार घर लौटा तो उसकी हालत देखकर राजा को बड़ा दु:ख हुआ। उसने बहुतेरा इलाज कराया, पर कोई फायदा न हुआ। तब एक दिन दीवान ने कहा, ‘‘मेरे बेटे की बहू बहुत होशियार है।’’ राजा ने कहा, ‘‘बुलाओ।’’ दीवान के यहाँ वह चित्रकार छिपा हुआ था। उसने उसका स्त्री का भेस बनवाया और दरबार में लाया। पर्दे की आड़ में वह स्त्री बैठी। उसने राजकुमार से कहा, ‘‘मेरी बात सुनो। विभीषण बड़ा शूरवीर था, पर दगा करके रामचन्द्र से जा मिला और राज्य का नाशक हुआ। भस्मापुर ने महादेव की तपस्या करके वर पाया, फिर उन्हीं के साथ विश्वासघात करके पार्वती को लेने की इच्छा की, सो भस्म हो गया। हे राजकुमार! रीछ ने तुम्हारे साथ इतना उपकार किया था, पर तुमने उसे धोखा दिया। पर इसमें दोष तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे पिता का है। जैसा बीज बोयेगा, वैसा ही फल होगा।’’

          इतनी बात सुनते ही राजकुमार उठ बैठा। राजा सब सुन रहा था। बोला, ‘‘रीछ की बात तुम्हें कैसे मालूम हुई?’’

          उसने कहा, ‘‘राजन्! जब मैं पढ़ने जाती थी तो मैंने अपने गुरु की बड़ी सेवा की थी। गुरु ने प्रसन्न होकर मुझे एक मंत्र दिया। उसे मैंने साधा। तबसे सरस्वती मेरे मन में बसी हैं। जिस तरह रानी का तिल मैंने पहचान कर बनाया, वैसे ही रीछ बात जान ली।’’

यह सुनकर राजा सारी बात समझ गया। उसने पर्दा हटवा दिया। खुश होकर चित्रकार को आधा राज्य देकर अपना दीवान बना लिया।
इतना कहकर ब्राह्मण बोला, ‘‘महाराज! मेरे श्लोक का यह मर्म है।’’

राजा विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर हजार गाँव उसके लिए बाँध दिये।

पुतली बोली, ‘‘क्यों राजन् ! हैं तुममें इतने गुण ?’’

                       राजा बड़ी परेशानी में पड़ा दीवान ने कहा, ‘‘महाराज ! आप सिंहासन पर बैठेंगे तो ये पुतलियाँ रो-रोकर मर जायंगी।’’ पर राजा न माना। अगले दिन फिर सिंहासन की ओर बढ़ा कि सोलहवीं पुतली सुन्दरवती बोल उठी, ‘‘हैं-हैं, ऐसा मत करना। पहले मेरी बात सुनो।’’

 

हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

top