सिंहासन-बत्तीसी उज्जैन नगरी में छत्तीस और चार जात बसती थीं। वहाँ एक बड़ा सेठ था। वह सबकी सहायता करता था। जो भी उसके पास जाता, खाली हाथ न लौटता। उस सेठ के एक बड़ा सुन्दर पुत्र था। सेठ ने सोचा कि अच्छी लड़की मिल जाय तो उसका ब्याह कर दूँ। उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लड़की की तलाश में इधर-उधर भेजा। एक ब्राह्मण ने सेठ को खबर दी कि समुद्र पार एक सेठ है, जिसकी लड़की बड़ी रुपवती और गुणवती है। सेठ ने उसे वहाँ जाने को कहा। ब्राह्मण जहाज में बैठकर वहाँ पहुँचा। सेठ से मिला। सेठ ने सब बातें पूछीं और अपनी मंजूरी देकर आगे की रस्म करने के लिए अपना ब्राह्मण उसके साथ भेज दिया। दोनों ब्राह्मण कई दिन की मंजिल तय करके उज्जैन पहुँचे। सेठ को समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। दोनों ओर से ब्याह की तैयारी होने लगी। दावतें हुईं। ब्याह का दिन पास आ गया तो चिंता हुई कि इतने दूर देश इतने कम समय में कैसे पहुँचा जा सकता है। सब हैरान हुए। तब किसी ने कहा कि एक बढ़ई ने एक उड़न-खटोला बनाकर राजा विक्रमादित्य को दिया था। वह उसे दे दे तो समय पर पहुँचा जा सकता है और लग्न में विवाह हो सकता है। सेठ राजा के पास गया। उसने फौरन उड़न-खटोला दे दिया और कहा, ‘‘तुम्हें और कुछ चाहिए तो ले जाओ।’’ सेठ ने कहा, ‘‘महाराज की दया से सब कुछ है।’’ उड़न-खटोला लेकर बारात समय पर पहुँच गई और बड़ी धूम-धाम से विवाह हो गया। बारात लौटी तो सेठ राजा का उड़न-खटोला वापस करने गया। राजा ने कहा, ‘‘मैं दी हुई चीज वापस नहीं लेता।’’ इतना कहकर उन्होंने बहुत-सा धन उस सेठ को दिया और कहा, ‘‘यह मेरी ओर से अपने बेटे को दे देना।’’ पुतली बोली, ‘‘विक्रमादित्य की बराबरी तो इंद्र भी नहीं कर सकता। तुम किस गिनती में हो’’ अगले दिन राजा फिर सिंहासन पर बैठने को गया तो सत्यवती नाम की सत्रहवीं पुतली ने उसे रोककर यह कहानी सुनायी:
|