सिंहासन-बत्तीसी एक दिन दो सन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहाँ आये। एक कहता था कि सबकुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सबकुछ ज्ञान से होता है। राजा ने कहा, ‘‘अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूँगा।’’ इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों संन्यासियों को बुलाकर कहा, ‘‘महराज ! यह शरीर आग, पानी, हवा और मिट्टी से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाय। इसलिए मन पर अंकुश होना जरुरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे संन्यासियो ! मन का होना बड़ा जरुरी है, पर उतना ही जरुरी ज्ञान का होना भी है।’’ अगले दिन राजा ने हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, फौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने मृदंग, सितार, बीन, बांसुरी, करताल, अलगोजा आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा। राजा ने कहा, ‘‘मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो माँगो, सो दूँ।’’ रानियों ने वही खड़िया माँगी। राजा ने आनंद से दे दी। पुतली ने कहा, ‘‘राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर माँगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।’’ वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता ! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई। बोली, ‘‘पहले मेरी बात सुनों।’’
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