सिंहासन-बत्तीसी एक दिन वीर विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा था। अचानक उसने पंडितों से पूछा, ‘‘बताओ, पाताल का राजा कौन है?’’ एक पंडित बोला, ‘‘महाराज ! पाताल का राजा शेषनाग है।’’ राजा की इच्छा हुई कि उसे देखें। उसने अपने वीरों को बुलाया। वे राजा को पाताल ले गये। राजा ने देखा कि शेषनाग का महल रत्नों से जगमगा रहा है। द्वार पर कमल के फूलों की बंदनवारें बँधी हुई हैं। घर-घर आनंद हो रहा है। खबर मिलने पर शेषनाग द्वार पर आया। पूछा कि तुम कौन हो? राजा ने बता दिया। फिर बोला, ‘‘आपके दर्शन की इच्छा थी, सो पूरी हुई।’’ शेषनाग राजा को अंदर ले गया। वहाँ उसकी खूब आवभगत की। राजा पाँच-सात दिन वहाँ रहा। जब विदा माँगी तो शेषनाग ने उसे चार लाल दिये। एक का गुण था कि जितने चाहो, उतने गहने उससे ले लो। दूसरे लाल से हाथी-घोड़े-पालकियाँ मिलती थीं, तीसरे से लक्ष्मी और चौथे से हरिभजन और अनेक काम करने की इच्छा पूरी होती थी। राजा अपने नगर में आया। वहाँ उसे एक भूखा ब्राह्मण मिला। उसने भिक्षा माँगी। राजा ने सोचा कि एक लाल दे दे। उसने ब्राह्मण को चारों लाल के गुण बताये और पूछा कि कौन-सा लोगे? उसने कहा कि मैं घर पूछकर अभी आता हूँ। घर पहुँचने पर उसने लालों की बात कही तो ब्राह्मणी ने कहा, ‘‘वह लाल लो, जो लक्ष्मी देता है; क्योंकि लक्ष्मी से ही सब काम सधते हैं।’’ ब्राह्मण के बेटे ने कहा, ‘‘अकेली लक्ष्मी से क्या होगा ! तुम वह लो, जिससे हाथी-घोड़े-पालकियाँ मिलती हैं।’’ बेटे की बहू ने कहा, ‘‘तुम वह लो, जिससे गहने मिलते है; क्योंकि गहनों से बहुत-से काम निकलते है।’’ ब्राह्मण ने कहा, ‘‘तुम तीनों बौरा गये हो। मेरी इच्छा सिवा धर्म के और कुछ नहीं; क्योंकि धर्म से जग में यश मिलता है। मैं तो वह लाल चाहता हूँ जिससे धर्म-कर्म हो।’’ चारों की चार मति। ब्राह्मण क्या करे! आकर उसने राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने कहा, ‘‘महाराज! तुम उदास न हो। चारों लाल ले जाओ।’’ ब्राह्मण को चारों लाल देकर विक्रमादित्य अपने घर लौट आया। पुतली बोली, ‘‘इस कलियुग में है कोई जो उस राजा के समान दान दे?’’
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