सिंहासन-बत्तीसी एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं। उन्होंने राजा से पूछा, ‘तुम कौन हो?’’ राजा ने कहा, ‘‘जो तुम हो, वहीं मैं हूँ।’’ तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहाँ चोरी की जाय। एक ने कहा, ‘‘मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूँ कि जायें तो खाली हाथ न लौटें।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘मैं जानवरों की बोलियाँ समझता हूँ।’’ तीसरा बोला, ‘‘मैं जहाँ चोरी को जाऊँ, वहाँ मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूँ।’’ चौथे ने कहा, ‘‘मेरे पास ऐसी चीज है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं ने मरुँ।’’ फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं यह बता सता हूँ कि धन कहाँ गड़ा है।’’ पाँचो उसी वक्त राजा के महल में पहुँचे। राजा ने जहाँ धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक गीदड़ बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, ‘‘धन लेने में कुशल नहीं है।’’ पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहाँ सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया। जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।’’
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