सिंहासन-बत्तीसी

कहानी 31

राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने गंगाजी के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, ब्राह्मण आये। देवता भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, ‘‘हे राजन् ! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे सतयुग में सत्यवादी हरिश्चंद्र, त्रेता में दानी बलि और द्वापर में धर्मात्मा युधिष्ठिर हुए, वैसे ही कलियुग में तुम हो। चारों युग में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।’’

          देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, ‘‘मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया ओर कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।’’

          इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया।

          पुतली बोली, ‘‘हे राजन् ! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो।’’ पर राजा का मन न माना।

अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया। बोली, ‘‘हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।’’

 

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