Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

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भाग 1

हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने समकालीन भारत की सनातन परंपरा को अभिव्यक्त किया है। सनातन परंपरा का विस्तृत परिचय माधावाचार्य की पुस्तक सर्वदर्शन संग्रह: या भरतसिंह उपाधयाय की पुस्तक बौध्ददर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन पढ़ने से हो सकता है। इस अधयाय को पढ़ते-पढ़ते भी इसकी कुछ झलक मिल जायेगी।

पारंपरिक (सनातन) जीवन दृष्टि के अनुसार इस सृष्टि में उपलब्धा हर अस्तित्ववान पदार्थ एक ही ब्रह्म का विस्तार है। पूरा का पूरा जगत् एवं संसार ब्रह्म के शरीर का विस्तार ही है। ब्रह्म की तरह यह जगत् और संसार भी शाश्वत है। सनातन है। पूरब और पश्चिम की सभ्यता उसी शाश्वत संसार की अभिव्यक्ति है। जगत् प्रकृति अथवा 'नेचर' है, संसार संस्कृति अथवा 'कल्चर' है। इस दृष्टि से ईसा, मूसा और मुहम्मद उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति थे जैसे राम, कृष्ण और बुध्द अभिव्यक्ति थे। सांप्रदायिक भेद तो इन सबों में है या था परंतु तात्तिवक भेद तो नहीं है। सनातनी दृष्टि से पश्चिम को असत्य या अशिव तो नहीं कहा जा सकता है केवल अधाूरा कहा जा सकता है। समकालीन पश्चिमी समाज ईसाई, आधुनिक एवं उत्तार-आधुनिक के साथ-साथ पैगन के रूप में कई संप्रदायों में बंटा है और उसके पास सबों को समाहित करने वाली बहुसांस्कृतिक - सभ्यतामूलक दृष्टि नहीं है। साथ ही, पश्चिम खुद को पूरब के घोर विरोधी / दूसरे धा्रुव के रूप में परिभाषित करता रहा है, पूरक इकाई के रूप में नहीं। इस पारंपरिक दृष्टि से देखने पर गांधी और कुमारस्वामी अधूरे सनातनी तो कहे जा सकते हैं चूंकि वे केवल ईसाई परंपरा को भारतीय, इस्लामिक या ग्रीक परंपरा के साथ समाहित कर पाते हैं परंतु इन्हें ईसाई कहना या अभारतीय कहना तो गलत होगा। भारतीय संदर्भ में देखें तो अधिाकांश ईसाई या मुसलमान भी सामान्यत: सनातनी जीवन जीते हैं भले हीं सनातनी जीवन दृष्टि नहीं रखते। जबकि भारत के अन्य संप्रदाय अब भी सनातनी जीवन के साथ सनातनी दृष्टि भी रखते हैं। कुमारस्वामी एवं गांधी इस अर्थ में सनातनी दृष्टि वाले हैं कि उन्हें लगता है कि एक ही सत्य की अभिव्यक्ति कई परंपराओं में हुई है। परंतु इनकी सीमा यह है कि ये लोग आधुनिक यूरोप को शैतान की रचना मानकर विरोधा करते हैं, ये पारंपरिक और आधुनिक दृष्टि के बीच समन्वय नहीं कर पाते। यह एक प्रकार की ईसाई दृष्टि कही जा सकती है। यह दृष्टि एक प्रकार की असहिष्णुता का उदाहरण है कि सत्य केवल ईश्वर द्वारा चुने हुए आस्तिक (ईसाई) समुदाय के पास है। 'अधर्म' की अवधारणा और 'शैतान की रचना' दोनों अलग-अलग प्रकार की अवधारणायें हैं। अधर्म व्यक्ति करता है। सभ्यता अधार्मिक हो ही नहीं सकती। संसार शैतान का साम्राज्य हो ही नहीं सकता। परंतु रावण की लंका भी सेमेटिक अर्थों में शैतानी साम्राज्य नहीं था। राम की अयोधया और जनक की मिथिला और रावण की लंका में संप्रदाय भेद तो है परंतु तत्व भेद नहीं है। युध्द अपने आप में अधार्मिक नहीं होते। कुछ युध्द अधार्मिक कारणों से लड़े जा सकते हैं परंतु युध्द अपने आप में ईश्वरीय लीला का ही अंग है। युध्द भी संवाद का, समन्वय का एक ऐतिहासिक रूप रहा है। प्रारब्धा और कर्म के सिध्दान्त से युध्दों के आधयात्मिक या दैवीय रूप को भी समझा जा सकता है।

अत: आधुनिक पश्चिम के सुप्त दैवीय उद्देश्यों/स्वरूप को नहीं समझ पाना गांधी और कुमारस्वामी की सीमा तो है परंतु मात्र इसी कारण उन्हें अभारतीय तो नहीं कहा जा सकता। उसी तरह, ईसाई यूरोप को या बौध्द श्रीलंका को सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाना विवेकानन्द की सीमा तो हो सकती है परंतु इसी आधार पर उन्हें आधुनिक यूरोप से जोड़कर अभारतीय तो नहीं कहा जा सकता। परंपरा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को सम्पूर्णता में समझने का एक पैराडाइम (दृष्टि) है। भारतीय परंपरा सनातन धर्म के पैगन संस्करण का ही एक जीवंत रूप है। गांधी में पैगनिज्म का सुपरिचित उदाहरण देखा जा सकता है। रामकृष्ण में इसका ज्यादा सरल एवं पारंपरिक उदाहरण देखा जा सकता है। गांधी में निवृत्तिामार्ग है, व्यक्तिगत विमुक्ति के लिए एकल साधाना है। रामकृष्ण में कुल मिलाकर प्रवृत्तिामार्ग है। सामूहिक विमुक्ति का मूलमंत्र है।

विवेकानन्द का दर्शन उपरि तौर पर आधुनिक/उत्तार आधुनिक किस्म का दर्शन है जिसका आधार यह मान्यता है कि पुर्नजागरण एवं ज्ञानोदय के बाद यूरोप या पश्चिमी सभ्यता का मूलाधार मूलत: प्राचीन रोम एवं प्राचीन यूनान का पैगन धर्म है न कि मधयकालीन यूरोप की ईसाई परंपरा। विवेकानंदजी का दर्शन मूलत: आधुनिक विज्ञान, तकनीक एवं बाजार प्रेरित परिवर्तनों को स्वीकार करने का, इसको  दैवीय योजना के अनुसार उत्पन्ना उत्पाद के रूप में स्वीकार करने का नैतिक र्निणय है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि ''अन्तत: जो हो रहा है वह ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है।'' शैतान (डेविल) इतना शक्तिशाली नहीं हो सकता कि ईश्वर की इच्छा या डिजाइन या लीला को दैविय उद्देश्यों से भटका दे। एक तो सामी (सेमेटिक) अर्थों वाला शैतान भारतीय दृष्टि में होता नहीं। भारत में अगर शैतान होता भी है तो वह ईश्वर की योजना का ही अंग होता है। सहायक होता है। शिव पुराण में भूत-प्रेत-राक्षस ईश्वर के विरोधी नहीं, भक्त हैं। वे भी दैवीय शक्ति के ही रक्षक हैं। भूत-प्रेत-राक्षस भी दैवीय शक्ति से ही उत्पन्ना होते है। वे भी ईश्वर की रचना हैं। उनके ही भक्त हैं। उनकी लीला के ही पात्र हैं। उनकी भूमिका भी इस लीला में सहयोग करने वाली है। जबकि पश्चिमी मान्यता के अनुसार ईश्वर और शैतान दोनों का दो अलग-अलग स्वायत्ता साम्राज्य होता है।

यहाँ हमें दो प्रकार के विमर्शों में अंतर करना आवश्यक होगा। एक है सत्तामूलक विमर्श एवं दूसरा है सभ्यतामूलक विमर्श। विष्णु सत्ता के प्रतीक पुरूष हैं। विष्णु पुराण राज्य केन्द्रित विमर्श है। शिव पुराण सभ्यतामूलक विमर्श है। महात्मा गांधी द्वारा रचित हिन्द स्वराज तो सभ्यतामूलक विमर्श है लेकिन अपने अन्तिम अर्थों में स्वतंत्रता आन्दोलन के नायक के रूप में महात्मा गांधी का विमर्श राज्यकेन्द्रित विमर्श है। यह विमर्श भारत में अंग्रेजी राज और इससे जुड़ी प्रक्रियाओं को सम्बोधिात था। यह राज्य के स्वरूप को रूपांतरित  करने का प्रयास था। बहुत कुछ वैसा ही जैसा विश्वामित्र ने वैदिक युग में किया था। जिससे इन्द्र का सिंहासन डोलता था। इन्द्र राज्य के प्रतीक पुरूष हैं। इन्द्र वैदिक देवता हैं। वे कृत युग में देवताअओं के राजा हैं। विष्णु मूलत: त्रेता + द्वापर के देवता हैं। वे राजा हैं। राज्य के प्रतीक पुरूष हैं, वे सत्ता के प्रतीक पुरूष हैं। कलियुग में वैष्णव धर्म का रूपान्तरण होता है। विष्णु एवं इनके अवतारों को प्रजातांत्रिक भक्ति का, लोक या सिविल सोसाइटी का, प्रजा का प्रतीक पुरूष  बनाया जाता है।  विष्णुअवतार मूलत: राज्यमूलक होते हैं। महाभारत के कृष्ण (गीता के कृष्ण) राज्यमूलक विमर्श के प्रतीक पुरूष हैं। परंतु श्रीमद्भागवत के कृष्ण लोकमूलक हैं।

महात्मा गांधी ने गीता को अपनी प्रिय पुस्तक के रूप में अकारण वरण नहीं किया था। गीता भी मूलत: एक राज्यमूलक विमर्श ही है। जबकि बाईबिल में वर्णित 'सर्मन ऑन द माउण्ट' लोकमूलक है। यह राज्यमूलक नहीं है। परंतु पोप द्वारा मान्यता प्राप्त आधिाकारिक 'बाईबल' या 'न्यू टेस्टामेंट' राज्य मूलक विमर्श बन गया है। लूथर का प्रोटेस्टैंट धर्म भी अन्तत: राज्यमूलक था। काल्विन का प्रोटेस्टैंट धर्म अवश्य लोक-मूलक रहा है। काल्विन को इस अर्थ में आधुनिकता का मुख्य पुरोहित कह सकते हैं। विलियम जेम्स जैसे आधुनिकतावादी तो बहुत बाद में आते हैं। इसके विपरीत हीगल का दर्शन राज्यमूलक था। दार्शनिक के रूप में डेकार्ट, लॉक या कान्ट राज्यमूलक नहीं सभ्यतामूलक थे या लोकमूलक थे। उत्कृष्ट साधाना केवल लोकमूलक नहीं होती, राज्यमूलक भी हो सकती है। माक्र्सवादी भी गांधी की तरह राज्यकेन्द्रित विमर्श करते रहे हैं।
राज्य = सत्ता = सत्ता केन्द्रित।
माक्र्स के चिन्तन के केन्द्र में सत्ता है। गांधी के चिन्तन के केन्द्र में भी सत्ता = स्वराज है। राज और राज्य में संरचनात्मक अन्तर तो होता है पर तात्तिवक रूप से हैं तो दोनो सत्ताकामी ही। हिन्द स्वराज के गांधीवादी विमर्श में ब्रिटिश राज की तुलना में आम भारतीयों के स्व (आत्मा) के राज का विमर्श है। नागरिकता का विमर्श राज्य केन्द्रित भी हो सकता है और लोक केन्द्रित भी। सत्ता के केन्द्र का विकेन्द्रीकरण करने वाला विमर्श विकसित करना हिन्द स्वराज का लक्ष्य था।

महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में सत्तामूलक एवं सभ्यतामूलक दोनों प्रकार के विमर्शों का समन्वय देखा जा सकता है। गांधीजी में एक लोक या सभ्यतामूलक पक्ष था उसके प्रतिनिधिा विनोबा थे। गांधी में एक राज्य या सत्ता पक्ष भी था उसके प्रतिनिधिा नेहरू और लोहिया थे। समकालीन संदर्भ में महात्मा गांधी एवं स्वामी विवेकानंद के अनुयायियों के बीच आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, खगोलीकरण एवं ईसाईयत के साथ हिन्दू समाज एवं संस्कृति के पारस्परिक संबंधा के बारे में बौध्दिक विमर्श के दौरान दुर्भाग्य से कटुता एवं असहजता लगातार बढ़ती जा रही है। इससे भारत के आम आदमी को काफी दुविधा झेलनी पड़ती है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित कुछ भारतीय मूल के गांधीवादी विद्वान अमेरिका एवं बहुराष्ट्रीय निगमों को शैतानी शक्ति मानते हैं एवं पारंपरिक ईसाईयत को दैवीय शक्ति मानते हैं। माक्र्स एवं इजरायल को भी ये लोग शैतानी शक्ति मानते हैं। उनकी नजर में पूरी आधुनिक पश्चिमी सभ्यता शैतानी शक्ति की उपज है। वे मानते हैं कि काला धान और भ्रष्टाचार कोई महत्तवपूर्ण समस्या नहीं है और न इसको साधारणत: दूर ही किया जा सकता है। यह तो दूरगामी रूपांतरण्ा के बाद ही दूर किया जा सकता है, चूंकि यह सब पश्चिमी सभ्यता की नैसर्गिक उपज हैं। वे ईसाईयत को अच्छी शक्ति मानते हैं और आधुनिक पश्चिम को बुराई की शैतानी शक्ति मानते हैं। वे स्वामी विवेकानन्द को एवं भारतीय अभिजात्य वर्ग तथा आधुनिक भारतीय संस्कृति को पसन्द नहीं करते।

पश्चिमी विश्वविद्यालयों में एवं पश्चिमी समाज में ईसाई समूह काफी लंबे समय से क्रियाशील रहे हैं। भले ही आज कल पश्चिमी समाज में संगठित ईसाई धर्म कोई मजबूत शक्ति नही रह गया है, परंतु वे पश्चिमी विश्वविद्यालयों की परिधिा में अब भी काफी प्रभावशाली हैं। गांधीजी पर भी मत-आरोपण (ब्रेन वाशिंग) की कई कोशिशें हुई थी, इसे स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्मकथा एवं अन्य जगहों पर स्वीकारा है। परंतु उपरोक्त गांधीवादी विद्वान अपने विचारों एवं विश्वासों के ईसाई स्रोत के बारे में संभवत: बहुत सचेत नहीं हों।

18वीं और 19वीं सदी तक आते-आते विश्वास और धर्मविधिा से संबंधिात व्यवहार दोनों के स्तर पर, यूरोप का ईसाई धर्म, यूरोपीय लोगों की नजर में, इतना पतित हो चुका था कि कैथोलिक लोग इसको बौध्दिक रूप से तर्कसंगत साबित करने की स्थिति में नही रह गए थे। इसकी तुलना में कला के स्तर पर अनुकूल अभियान चलाया जा सकता था। फलस्वरूप कला को कैथोलिक ईसाई विद्वानों ने विशिष्ट प्रतीक कहना शुरू किया और प्रोटेस्टेन्ट लोगों ने विश्वास को केन्द्रीय मूलभाव (सेन्ट्रल मोटिफ) कहना शुरू किया। यहूदी मूल के विद्वानों ने धर्मविधिा (रिचुअल) को केन्द्रीय कहना शुरू किया।

हर चीज के बावजूद कला कलाकार की व्यक्तिगत रचना होती है। कलाकार समाज का एक विशिष्ट भाग होता है और काफी हद तक समाज से कटा होता है। वह चेतन संरचना और धर्म आधारित संस्तरण को तर्कसंगत साबित करने के लिए बाधय नहीं होता। वह सामाजिक अवधारणा, अपने युग के व्याकरण और भाषा  की सीमा से अपेक्षाकृत स्वतंत्र होता है। बहुत कुछ स्वप्न की तरह। फलस्वरूप ईसाई मूल के विद्वानों को कला की दुनिया सुरक्षित स्वर्ग लगा चूंकि तब तक फ्रायड, जुंग और लकान की कला के बारे में समालोचना लोकप्रिय नहीं हुई थी। यह आकस्मिक नही है कि गांधी के गुरू रस्किन तथा कुमारस्वामी के गुरू मॉरिस दोनों कला इतिहास के  विद्यार्थी थे। यह भी आकस्मिक नही है कि धीरे-धीरे कुमारस्वामी कला इतिहास को छोड़कर सैध्दान्तिकी (मेटाफिज्क्सि) पर सकेन्द्रित होने लगे थे। धीरे-धीरे गांधी ने भी अपने को पुन: ढूंढ़ना शुरू कर दिया था। जैसे-जैसे कुमारस्वामी और गांधी को सनातन हिन्दू धर्म की गहराई समझने का अवसर मिला वे लोग धीरे-धीरे यूरोपीय कला आंदोलन के प्रभाव से दूर होते गये।

यूरोप के प्रोटेस्टेन्ट लोगों ने तो सोलहवीं शताब्दी से ही विश्वास के स्तर पर कैथोलिकों से लड़ाई लड़ कर अपनी नई पहचान खोजना शुरू कर दिया था। उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते यहूदी पृष्ठभूमि के विद्वान लोग अपने अधययनों में कैथोलिक ईसाई धर्मविधिा की खिल्ली उड़ाने लगे। यहूदी मूल के दुर्खीम ने जनजातीय और यहूदी धर्मविधिा को अप्रत्यक्ष बौध्दिक समर्थन देने के लिए 'दि एलीमेन्टरी फॉर्म आफ रिलिजियस लाइफ' लिखा। यह अन्तत: ईसाई धर्म के खिलाफ जाता है। आत्महत्या विषय पर लिखी उनकी दूसरी किताब भी अंतत: ईसाई धर्म के विश्वास के खिलाफ जाता है। यहूदी पृष्ठभूमि के एक दूसरे विद्वान कार्ल माक्र्स, धार्मिक विश्वास को झूठी चेतना कह कर ईसाई पुनरुत्थान (प्रोटेस्टेन्ट) की हंसी उड़ाते हैं। इसी क्रम में, फ्रायड जैसे मनोविश्लेषणवादी रस्किन एवं मॉरिस जैसे ईसाई कला समीक्षकों के प्रभाव को अपने अधययनों के द्वारा खोखला कर देते हैं। चार्ल्स डार्विन अपने उद्विकास वाले सिध्दांत के जरिये ईसाईयों के बीच लोकप्रिय जेनेसिस की बाईबिल वाली कहानी को काफी हद तक अप्रासंगिक बना देते हैं।

पश्चिमी आधुनिकता और इसकी उत्कट अभिव्यक्तियों (अमेरिकी सभ्यता एवं बहुराष्ट्रीय निगम) के बारे में यूरोप के कैथोलिक ईसाईयों की दृष्टि आज भी ज्यादा नहीं बदली है। पश्चिमी आधुनिकता को आज भी ये लोग शैतानी शक्तियों की रचना मानते हैं। इस दृष्टि के लोग आज भी अमेरिका को एक सभ्यता नहीं मानकर एक 'सेटलमेंट' कहते हैं। 'सेटलमेंट' (रिहायसी स्थान) कहने के पीछे तीन भाव अंतर्निहित होता है। पहला भाव यह है कि वे अमेरिका की पारंपरिक (पैगन) सभ्यता को सभ्यता नहीं मानकर बर्बरता मानते हैं। दूसरा भाव यह है कि वे कोलंबस द्वारा अमेरिका खोजे जाने के बाद पोप की प्रेरणा, सहमति एवं आज्ञा से स्पेन और पुर्तगाल के नेतृत्व में चलाये गये बर्बर साम्राज्यवादी अभियान को 'सभ्यता' फैलाने वाला अभियान मानते हैं और अमेरिकी भूमि को इस अभियान को चलाने वाले कैथोलिक ईसाईयों का रिहायसी स्थान मानते हैं। तीसरा भाव यह है कि यूरोप के कैथोलिक ईसाईयों के 'महान उद्देश्य' से किये गये भीषण एवं रक्तरंजित अभियानों के बावजूद अमेरिका को आज भी मधयकालीन यूरोपीय मानदंडों पर सभ्यता नहीं बनाया जा सका है। यूरोप के विश्वविद्यालयों में अमेरिका को इसी तर्क के आधार पर सभ्यता नहीं मानने की प्रवृत्तिा हावी रही है। देखा-देखी अन्य लोग भी इस कुतर्क को बिना सोचे-समझे मानने लगे हैं। भारत की शैक्षणिक संस्थाओं में भी मुख्य रूप से बाईबल का कैथोलिक दृष्टि से प्रभावित अनुवाद ही पढ़ा-पढ़ाया जाता है। विभिन्न प्रकार के प्रोटेस्टेन्ट संप्रदायों एवं इस्लाम और यहूदी दृष्टि वाला अनुवाद नहीं पढ़ा-पढ़ाया जाता। इस्लाम तथा यहूदी मत में बुराई की या नरकदूत (शैतान) की अवधारणा कैथोलिक अवधारणा से बहुत मामलों में समान होने पर भी कई विशिष्ट अर्थों में अलग रही है। इनके बीच सांप्रदायिक गतिरोधा एवं संघर्ष के कई कारणों में एक प्रमुख कारण यह अन्तर और इनका फलितार्थ भी रहा है।

स्वामी विवेकानंद से लेकर रामस्वरूप तक अधिाकांश समकालीन हिन्दू चिंतक पुनर्जागरण (रेनेंसाँ) एवं ज्ञानोदय (एनलाइटेनमेंट) के बाद की आधुनिक यूरोप की सभ्यता से अपनापन महसूस करते हैं। इन लोगों को लगता है कि आधुनिक यूरोपीय सभ्यता का आधार मधयकालीन यूरोप की ईसाई परंपराएं नहीं हैं, बल्कि प्राचीन यूनान एवं प्राचीन रोम की पैगन परंपराएं हैं। भारत की सनातन परंपराओं एवं यूनान, रोम, मिस्र, चीन, बेबिलोन, पर्शिया (फारस) आदि की पैगन परंपराओं में समानता एवं सहधार्मिता का तथ्य अब सामान्य रूप से पूरब एवं पश्चिम दोनों जगह के विद्वान स्वीकारने लगे हैं। इन विद्वानों की दृष्टि में पुनर्जागरण एवं ज्ञानोदय के बाद आधुनिक यूरोप की ईसाई एवं गैर-ईसाई दोनों परंपराओं में लगातार रूपांतरण होता रहा है। इस रूपांतरण की अभिव्यक्ति धर्म सुधार आंदोलनों, औद्योगिक क्रांतियों एवं राजनैतिक क्रांतियों के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकि स्तरों पर होता रहा है। परंतु इसके संपूर्ण फलितार्थों को उत्तार-आधुनिक (1968 के बाद) युग से पहले पश्चिम के विद्वान स्वीकारने से बचते रहे हैं।

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