मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-4

पेज-26

वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपने गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगुले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शांत, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तांत करते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।

धनिया ने आँखों में रस भर कर कहा - चलो-चलो, बड़े बखान करने वाले! जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।

होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा - ले, अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?

धनिया ने बात बदल कर कहा - देखो, गोबर गाय ले कर आता है कि खाली हाथ।

चौधरी ने पसीने में लथपथ आ कर कहा - महतो, चल कर बाँस गिन लो। कल ठेला ला कर उठा ले जाऊँगा।

होरी ने बाँस गिनने की जरूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी काट ही लेगा, तो क्या। रोज ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दर्जनों बाँस काट ले जाते हैं।

चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकाल कर उसके हाथ में रख दिए। होरी ने गिनकर कहा - और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं।

चौधरी ने बेमुरौवती से कहा - पंद्रह रुपए में तय हुए हैं कि नहीं?

'पंद्रह रुपए में नहीं, बीस रुपए में।'

'हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रुपए कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ?'

'तय तो बीस रुपए में ही हुए थे चौधरी ! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपए निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।'

मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर? होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंक कर रह गया। बस इतना बोला - यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबा कर राजा न हो जाओगे।

चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला - और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबा कर राजा हो जाओगे? ढाई रुपए पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाए।

होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गए। चौधरी तो रुपए सामने जमीन पर रख कर चला गया, पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी है, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिए होते, तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपने चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाए ढाई रुपए मिल गए। ठोकर खा कर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।

 

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