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प्रियवदंबा
सौरभ कुमार
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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके
प्रियवदंबा
(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)
पेज 3
8.
चित्रांगद गांगेय का छोटा भाई था। अभाव का कोई भाव हो या न हो, अभाव की कोई सत्ता हो या न हो, भले कोई भाव आप में अंगड़ाई ले या न ले, भाव अपने भीतर रूप बदल कर उसकी पूर्ति कर लेता है। मन स्वयं में सबसे बड़ा रंगकर्मी होता है वह क्षतिपूर्ति कर लेता है। खुद गांगेय ये नहीं जान पाया कि चित्रांगद कब उसके छोटे भाई के बदले उसके वात्सल्य का अवलंबन बन चुका है। गांगेय का अनुशासन उस माली का अनुशासन बन चुका था जहाँ एक पौधा सिर्फ पौधा हीं नहीं होता। वह स्वयं माली का मूर्त्तिमान रूप हो जाता है। गांगेय अपनी वात्सल्य भाव का सार्थकता और निर्थकता दोनों हीं समझता था। चित्रांगद जो उसके लिए था वह खुद चित्रांगद के लिए नहीं था।
गांगेय अब अपनी भूमिका को आध्यात्मिक तप के लिए तैयार कर रहा था। महामुनि व्यास से उसकी नजदीकि उसे उस ओर ले जा रही थी। अब वह वेद की त्रयी के मुकाबले अथर्ववेद को त्रयी वेद के साथ मुख्य भूमिका में लाना चाह रहा था। ब्रह्म को जानने के लिए समन्वयात्मक कथ्य के रूप में उपनिषद की योजना को सफल बनाने में गांगेय की कार्ययोजना की रूचि थी।
अनुशासन अपने भीतर संरक्षण का रूप लिए होता है। अनुशासन सिर्फ बंधन हीं का रूप नहीं है। यह रक्षा का भी रूप है। यह बंधन हीं हमें अनचाहे से अन उल्लेखनीय रूप से रक्षा कर रहा होता है। यह इतने सूक्ष्म रूप से करता है कि हम नहीं जान पाते। इन्हें वे जान पाते हैं जो चाहकर भी घात नहीं लगा पाते हैं।
चित्रांगद के साथ भी यही हुआ जो सबके साथ होता है। प्रशंसा खतरनाक चीज होती है। वे लोग भाग्यशाली होते हैं जो नहीं जान पाते कि यह कितने खतरनाक घाव दे सकती है। चित्रांगद के साथ भी यही हुआ। हाल के युद्ध में मिली जय में चित्रांगद को श्रेय तो पूरा मिला परंतु विपक्षी के मर्म पर पूरा वार करने का मौका नहीं मिला। उस अप्रत्याशित प्रत्याक्रमण का मिलने वाला गुप्त व्यूह हमला गांगेय हीं झेलते थे। अपने महत्वपूर्ण व्यूह पर सफल भूमिका ने, चित्रांगद को सर्वप्रमुख व्यूह पर रहने की युद्धोत्साह चित्रांगद में पूरे तरह से जाग चुका था। गांगेय अपने संरक्षण में चित्रांगद को पूरी तरह परिपक्व करना चाहते थे ताकि वह शत्रु की प्रत्याक्रमण को पूरी तरह समझ ले। लेकिन वह संरक्षण अब उसके लिए बंधन बन चुका था।
युद्ध में मृत्यु भले एक वीर की योग्य मौत हो। हम अपने शहीद के लिए कितना हीं गर्व से सीना चौड़ा कर ले। युद्ध में मिली मृत्यु भले हीं स्वर्ग दे। लेकिन विदा विजय के लिए हीं किया जाता है। गांगेय को भी चित्रांगद को विजय के विदा करना पड़ा। यह पहला मौका था जब हस्तिनापुर की युद्ध में वह महत्वपूर्ण प्रत्याक्रमण पर वह नहीं था। सीमा पर अनार्य लोगो से अत्यंत वीरता से लड़ते हुए महाराज चित्रांगद वीरगति को प्राप्त हो गए। चित्रांगद की मृत्यु हो गई।
9.
सत्यवती महारानी थी। महाराज शांतनु के वंशवृक्ष को आगे सुरक्षित ले जाने की जिम्मेदारी उनकी थी। परंतु उसे पूरा करने का भार गांगेय के हीं कंधो पर था। चित्रांगद की मौत ने महारानी सत्यवती को निश्चय रूप से तोड़ा। लेकिन गांगेय अब मानसिक रूप से पौढ़ होते जा रहे थे। जहाँ अब वे इस यौद्धा जीवन से अलग होना जाना चाहते थे। अब वहाँ यह खुद जीवन से युद्ध बनता जा रहा था। चित्रांगद के नि:संतान मृत्यु ने कोमल विचित्रवीर्य के भविष्य के प्रति महारानी और संरक्षक गांगेय को अति सतर्कता से भर दिया था। जहाँ जीवन खुशी का उपवन होना चाहिए वहाँ यह प्रतिज्ञा के देवत्व से कर्त्तव्यों के निर्वहण की युद्धभूमि बन चुका था। यहाँ पूरे दायित्वों की गिनती नहीं होनी थी, असफल कर्त्तव्यों का उत्तर दूसरों के बिन पूछे निगाहों में देना था।
10.
जहाँ एक स्त्री के लिए दुल्हन बनना हीं मानो सार्थकता हो वहाँ क्या दूल्हा बनना हीं क्या एक पुरूष की सार्थकता है, यह प्रश्न गांगेय के संदर्भ में सत्यवती के मानस में उठने लगा था। जिस महारानी के गरिमा और राजमाता के सुख के लिए गांगेय के जीवन का रस वंचित हुआ था क्या वह वाकई में महत्वपूर्ण था। क्या एक साधारण गृहिणी की तरह अपने क्षुद्र जीवन में भोजन बनाते हुए वह जीवन ज्यादा महिमाशाली नहीं होता, जो एक राजमाता होते हुए दूसरे के सुख को वंचित करते हुए पाया है, जो पुत्र उसका भी है। द्वंद्व के झूले में झूलते हुए वे विचित्रवीर्य के शीघ्र विवाह के लिए उत्कंठित होते जा रहीं थी।
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