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प्रियवदंबा

सौरभ कुमार

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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके

प्रियवदंबा

(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)

पेज 4

11.  
काशीराज इन्द्रद्युम्न एक शैव परंपरा का अनुयायी था। वह राजकुमारी पार्वती के दृढ़निश्चय और सही निर्णय लेने की क्षमता से अभिभूत था। पार्वती जिस प्रकार अपने लिए अद्वितीय न कहकर अपना स्वयं का दूसरा रूप खोज लिया था, यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, इसने काशीराज के शैव बनने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। काशीराज स्वतंत्रता के अधिकार को समझता था। उसके लिए इसके बिना आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अखंड निश्चय भी असंभव था। उसने काशी को सिर्फ और सिर्फ आध्यात्मिक क्षेत्र हीं नहीं रहने दिया। उसके लिए यह विश्वास करना कठिन था कि जो शिव तीसरे नेत्र से कामदेव को जला सकते हैं वे बिना पार्वती के अनुराग के ही पार्वती को अपने सती के प्यार के श्मसान बने हृदय में जगह दे दी होगी। गुरूजनों और अभिभावक के रास्ता पर चलना हीं अगर श्रेय का एकमात्र सही रास्ता हीं  होता तो खुद सदाशिव को अपने लिए वैवाहिक रीति से संपन्न पाप से तारने वाली पत्नी मिल जाती लेकिन वे खुद कभी प्यार की अनुभूति कर पाते क्या? काशी का राज्य अध्यात्म, शिक्षा, और सैन्य शिक्षण का जगह नहीं रह गया। काशी में जो कला पनपी वह मानव के रूक्ष स्वभाव के भीतर गहरी तरलता को व्यक्त करने लगी। इसका प्रभाव यह पड़ा कि काशी साम्राज्य के होड़ में पीछे पड़ गया। उस काल में जब राजकुमारी का हरण आश्चर्य पैदा नही करता था। और उस अपहृता राजकुमारी भी इसे दूसरे द्वारा निर्धारित नियति मान अपने जीवन को होम कर देती थी। काशी ने अपने कला संपन्न राजकुमारियों का स्वयंवर का अधिकार देने का निश्चय कर लिया।  

अम्बा को गौरवर्ण का कहना निश्चय हीं न्याय करना नहीं कहा जाएगा। वह अपने भीतर सौंदर्य की चारूता ली हुई थी। वह सामान्य राजकुमारियों से किंचित ऊंची  थी। उसका चेहरा गोल नहीं था। अपने चेहरे की लंबाई के मुकाबले चौड़ाई ज्यादा थी। जो अपने चिबुक के पास नुकीली थी। उस पर उसके साधारण से थोड़ी लंबी नाक अपने थरथराते पतले मूंगे से अधर उसे उसके भीतर के तेज और सौंदर्य से भर देते थे।
वह सरस्वती के भीतर लक्ष्मी के तेज को सम्हाले बैठे थी। जो अपने संगीत और पिंड और ब्रह्मांड की ऊर्जा को नृत्य के भीतर समेटे हुए थी।
वह मार्तिकावत के राजा शाल्व की सहपाठिन रह चुकी थी। वह राजकुमार था। उसकी भी रूचि संगीत में थी और उससे भी ज्यादा अम्बा के भीतर के जीवित संगीत में था। वह ना तो अम्बा की कोमलता का मुकाबला कर पाया और न हीं क्षिप्र लय का संधान कर पाया। एक तरफ के संधान ने उसे उस क्षिप्र लय से वंचित कर दिया जो एकाग्र रूप से अपनी प्रतिभा को लागाए रख कर प्राप्त होता है। इसका घाटा उसे एक योद्धा के रूप में मार्तिकावत में आकर उठाना पड़ा था।
अम्बा शाल्व के अनुराग को समझती थी। परंतु उसने अपने शिक्षण काल में प्रणय करने में रस नहीं लिया। वह उसे अपने सहयोगी के रूप में जरूर ज्यादा उपयुक्त मानती थी। शायद वह यह भी समझती थी उसके जैसे कलाकार और राजकुमारी का मिलना शाल्व का सौभाग्य मानना चाहिए। वह सही समय पर उपयुक्त निर्णय ले लेगी इसका वह विश्वास रखती थी।

काशीराज इन्द्रद्युम्न अम्बा के भीतर के इस मनोभाव को नहीं जानता था। उसने स्वयंवर की घोषणा कर दी। अम्बा स्वयं वर तो चुनना चाहती थी परंतु वह बिना स्वयंवर के ही शाल्व को चुनना चाहती थी। लेकिन अब इस परिस्थिति में स्वयंवर अनिवार्य था।
अम्बा इस तरह उस रास्ते पर आगे बढ़ गई जहाँ उसे  एक जन्म में अग्निस्नान कर स्वयं को भस्म कर देना पड़ा। दूसरे जन्म में  जलसमाधि लेकर स्वयं को जल में तिरोहित कर दिया। तीसरे जन्म में अश्वत्थामा ने शिखण्डी के तन को अपने फरसे से दो टुकड़े कर दिया !
अम्बा उस रास्ते पर स्त्री के दुल्हन बनने के तथाकथित सबसे बड़े स्वप्न को लिए आगे  बढ़ गई।

12.
हस्तिनापुर पर बढ़ते वेदव्यास और गांगेय की चौथे वेद और उस गुरू परंपरा पर बढ़ते रूचि ने परंपरावादी राजाओं के मन में हस्तिनापुर से दूरी बढ़ाने में योगदान दिया। विचित्रवीर्य के कोमल स्वास्थ्य ने उसे युद्ध से दूरी बनाने पर मजबूर किया था। महारानी सत्यवती गांगेय के भीतर के उदासी से अपरिचित नहीं थी। वे अब कोई अनहोनी नहीं चाहती थीं। वे अब शांतिपूर्वक राज्य को स्थिर कर आगे बढ़ाना चाहती थी। युद्ध में गांगेय अग्रणी भूमिका निभाने को अब भी सोत्साह हीं थे। पर इन सब में विचित्रवीर्य की अनुपस्थिति मामले को अनावश्यक रूप से नाजुक बना सकता था। सीमा पर जंगली और नरभक्षी लोगों का दबाब बढ़ने लगा था। मगध और मथुरा की बढ़ती प्रबलता ने उन्हें हस्तिनापुर की तरह ढ़केल दिया था। ऐसे हालात में यथास्थिति को रख कर अपने को सुदृढ़ करना हीं सही होता। 
विचित्रवीर्य के प्रति अन्य राजाओं की अनदेखी ने गांगेय को चिंतित किया था। उन्होंने अब उस स्त्री तेज को खोजना शुरू किया जिसके साथ तेज और शांति अपने सर्वोत्तम रूप में संतुलन बना सके।
अम्बा में उन्हे वह रूप दिखाई पड़ा जो सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को भी शक्ति दे सकती थी और हस्तिनापुर उसे साम्राज्ञी के रूप में स्वीकार कर लेता। स्वयंवर के रूप में यह उसे एक उपयुक्त अवसर लगा। 

13.
अपने शिक्षण काल का प्रेमी हार गया। यह जीवन सिर्फ दो प्रेमियों का प्रेमक्षेत्र हीं नहीं है यह सच में युद्धक्षेत्र भी है। गांगेय ने सारे राजाओं को अपने चलते रथ पर हीं से तीर चला कर अकेले हीं हरा दिया। अगर शाल्व लय के अठगुण में गाते अम्बा पर आकर्षित हुआ था तो अपने असफल ऑब्सेसिव प्रेम की आग को लिए दौड़ते रथ पर अठगुण की लय से अचूक तीर लक्ष्य पर गांगेय चला सकता था। संगीत का प्रशिक्षण लिए कोई यौद्धा ऐसा युद्ध प्रदर्शन कर सकता है यह किसी ने सोचा भी नहीं था। लय में बंधे हाथ सिर्फ तीर हीं नहीं लक्ष्य को भी लिए हुए हैं यह युद्ध में पहला हीं प्रदर्शन था।
जिस हस्तिनापुर महारानी बनने का आग्रह ठुकरा कर अम्बा आगे बढ़ गई थी, वही अम्बा आज अम्बिका, अम्बालिका के साथ युद्ध के बाकी पराजित योद्धा राजओं को छोड़ हस्तिनापुर की तरह जा रही थी। शाल्व ने पीछा कर सेना के साथ युद्ध किया। परंतु पराजित वही नही हुआ। पराजित अम्बा भी हुई। कोई संगीत की अनुभूति युद्ध में दे सकता है यह उसके लिए प्रभावकारक था। परंतु प्रभावकारक हीं। प्यार वह अब भी वह शाल्व से हीं करती थी। प्रभाव का मतलब प्यार नही होता। अब वह उस महारानी से मिलने जा रही थी जिसने खुद हीं प्रेमविवाह किया था। वह उस महारानी से हीं न्याय चाहती थी।

 

 

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