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सूरदास

श्रीकृष्णबाल-माधुरी

राग सारंग

बाल-बिनोद भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी |
सावधान ह्वै सुनौ परीच्छित, सकल देव मुनि साखी ||
कालिंदी कैं कूल बसत इक मधुपुरि नगर रसाला |
कालनेमि खल उग्रसेन कुल उपज्यौ कंस भुवाला ||
आदिब्रह्म जननी सुर-देवी, नाम देवकी बाला |
दई बिबाहि कंस बसुदेवहिं, दुख-भंजन सुख-माला ||
हय गय रतन हेम पाटंबर, आनँद मंगलचारा |
समदत भई अनाहत बानी, कंस कान झनकारा ||
याकी कोखि औतरै जो सुत, करै प्रान परिहारा |
रथ तैं उतरि, केस गहि राजा, कियौ खंग पटतारा ||
तब बसुदेव दीन ह्वै भाष्यौ, पुरुष न तिय-बध करई |
मोकौं भई अनाहत बानी, तातैं सोच न टरई ||
आगैं बृच्छ फरै जो बिष-फल, बृच्छ बिना किन सरई |
याहि मारि, तोहिं और बिबाहौं, अग्र सोच क्यों मरई ||
यह सुनि सकल देव-मुनि भाष्यौ, राय न ऐसी कीजै |
तुम्हरे मान्य बसुदेव-देवकी, जीव-दान इहिं दीजै ||
कीन्यौ जग्य होत है निष्फल, कह्यौ हमारौ कीजै |
याकैं गर्भ अवतरैं जे सुत, सावधान ह्वै लीजै ||
पहिलै पुत्र देवकी जायौ, लै बसुदेव दिखायौ |
बालक देखि कंस हँसि दीन्यौ, सब अपराध छमायौ ||
कंस कहा लरिकाई कीनी, कहि नारद समुझायौ |
जाकौ भरम करत हौ राजा, मति पहिलै सो आयौ ||
यह सुनि कंस पुत्र फिरि माग्यौ, इहिं बिधि सबन सँहारौं |
तब देवकी भई अति ब्याकुल, कैसैं प्रान प्रहारौं ||
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं |
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं पुकारौं ||
धेनु-रूप धरि पुहुमि पुकारी, सिव-बिरंचि कैं द्वारा |
सब मिलि गए जहाँ पुरुषोत्तम, जिहिं गति अगम अपारा ||
छीर-समुद्र-मध्य तैं यौं हरि, दीरघ बचन उचारा |
उधरौं धरनि, असुर-कुल मारौं, धरि नर-तन-अवतारा ||
सुर, नर, नाग तथा पसु-पच्छी, सब कौं आयसु दीन्हौं |
गोकुल जनम लेहु सँग मेरैं, जो चाहत सुख कीन्हौ ||
जेहिं माया बिरंचि-सिव मोहे, वहै बानि करि चीन्हो |
देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी, आप बास करि लीन्हौ ||
हरि कैं गर्भ-बास जननी कौ बदन उजारौ लाग्यौ |
मानहुँ सरद-चंद्रमा प्रगट्यौ, सोच-तिमिर तन भाग्यौ ||
तिहिं छन कंस आनि भयौ ठाढ़ौ, देखि महातम जाग्यौ |
अब की बार आपु आयौ है अरी, अपुनपौ त्याग्यौ ||
दिन दस गएँ देवकी अपनौ बदन बिलोकन लागी |
कंस-काल जिय जानि गर्भ मैं, अति आनंद सभागी ||
मुनि नर-देव बंदना आए, सोवत तैं उठि जागी |
अबिनासी कौ आगम जान्यौ, सकल देव अनुरागी ||
कछु दिन गएँ गर्भ कौ आलस, उर-देवकी जनायौ |
कासौं कहौं सखी कोऊ नाहिंन , चाहति गर्भ दुरायौ ||
बुध रोहिनी-अष्टमी-संगम, बसुदेव निकट बुलायौ |
सकल लोकनायक, सुखदायक, अजन, जन्म धरि आयौ ||
माथैं मुकुट, सुभग पीतांबर, उर सोभित भृगु-रेखा |
संख-चक्र-गदा-पद्म बिराजत, अति प्रताप सिसु-भेषा ||
जननी निरखि भई तन ब्याकुल, यह न चरित कहुँ देखा |
बैठी सकुचि, निकट पति बोल्यौ, दुहुँनि पुत्र-मुख पेखा ||
सुनि देवकि ! इक आन जन्म की, तोकौं कथा सुनाऊँ |
तैं माँग्यौ, हौं दियौ कृपा करि, तुम सौ बालक पाऊँ ||
सिव-सनकादि आदि ब्रह्मादिक ज्ञान ध्यान नहीं आऊँ |
भक्तबछल बानौ है मेरौ, बिरुदहिं कहा लजाऊँ ||
यह कहि मया मोह अरुझाए, सिसु ह्वै रोवन लागे |
अहो बसुदेव, जाहु लै गोकुल, तुम हौ परम सभागे ||
घन-दामिनि धरती लौं कौंधै, जमुना-जल सौं पागै |
आगैं जाउँ जमुन-जल गहिरौ, पाछैं सिंह जु लागे ||
लै बसुदेव धँसे दह सूधे, सकल देव अनुरागे |
जानु, जंघ,कटि,ग्रीव, नासिका, तब लियौ स्याम उछाँगे ||
चरन पसारि परसि कालिंदी, तरवा तीर तियागे |
सेष सहस फन ऊपर छायौ, लै गोकुल कौं भागे ||
पहुँचे जाइ महर-मंदिर मैं, मनहिं न संका कीनी |
देखी परी योगमाया, वसुदेव गोद करि लीनी ||
लै बसुदेव मधुपुरी पहुँचे, प्रगट सकल पुर कीनी |
देवकी-गर्भ भई है कन्या, राइ न बात पतीनी ||
पटकत सिला गई, आकासहिं दोउ भुज चरन लगाई |
गगन गई, बोली सुरदेवी, कंस, मृत्यु नियराई ||
जैसैं मीन जाल मैं क्रीड़त, गनै न आपु लखाई |
तैसैंहि, कंस, काल उपज्यौ है, ब्रज मैं जादवराई ||
यह सुनि कंस देवकी आगैं रह्यौ चरन सिर नाई |
मैं अपराध कियौ, सिसु मारे, लिख्यौ न मेट्यौ जाई ||
काकैं सत्रु जन्म लीन्यौ है, बूझै मतौ बुलाई |
चारि पहर सुख-सेज परे निसि, नेकु नींद नहिं आई ||
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, आनंद-तूर बजायौ |
कंचन-कलस, होम, द्विज-पूजा, चंदन भवन लिपायौ ||
बरन-बरन रँग ग्वाल बने, मिलि गोपिनि मंगल गायौ |
बहु बिधि ब्योम कुसुम सुर बरषत, फुलनि गोकुल छायौ ||
आनँद भरे करत कौतूहल, प्रेम-मगन नर-नारी |
निर्भर अभय-निसान बजावत, देत महरि कौं गारी ||
नाचत महर मुदित मन कीन्हैं, ग्वाल बजावत तारी |
सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे, मथुरा-गर्व-प्रहारी ||


भावार्थ :-- मुनि शुकदेवजी ने हृदयको प्रिय लगनेवाली श्रीकृष्णचन्द्र के बाल-विनोद
की लीलाका वर्णन करते हुए कहा- महाराज परीक्षित ! सावधान होकर सुनो, सभी देवता एवं
मुनिजन इस वर्णन के साक्षी हैं | (सबने इसे देखा है|) यमुना-किनारे एक मथुरा नाम की
रसमयी नगरी बसी है, वहाँ उग्रसेन के कुल में (उनका पुत्र होकर) दुष्ट कालनेमि ही
कंस के रूप में उत्पन्न हुआ, जो (पीछे) वहाँ का नरेश हो गया | परम ब्रह्म को जन्म
देनेवाली, समस्त देवात्मिका, दुःख को नष्ट करनेवाली सुखस्वरूपा देवकी नामक (अपनी
चचेरी) बहिनका विवाह कंस ने वसुदेवजी के साथ कर दिया | हाथी, घोड़े, रत्न स्वर्ण
राशि, रेशमी वस्त्र आदि देकर आनन्द-मंगल मनाते हुए (बहनोईका) समादर करते समय
कंस के कानौं को झंकृत करते यह आकाशवाणी हुई कि`इसके गर्भ से जो पुत्र प्रकट होगा,
वह तेरे प्राणों का हर्ता होगा |' (यह सुनते ही) रथ से उतरकर राजा कंसने (देवकी के)
केश पकड़ लिये और तलवार म्यान से खींच ली | तब वसुदेवजी ने बड़ी नम्रता से कहा-
`कोई भी पुरुष स्त्री की हत्या नहीं करता है |'
(कंसने कहा-) `मुझे जो आकाशवाणी हुई है, उसके कारण मेरी चिन्ता दूर नहीं होती है |
जो वृक्ष आगे विषफल फलनेवाला हो, उस वृक्ष के ही न रहने पर फिर वह कैसे फल सकता
है | तुम अभी से शोक करके क्यों मरे जाते हो, इसे मारकर तुम्हारा विवाह दूसरी
कुमारी से कर दूँगा |' यह सुनकर सभी देवताओं तथा मुनियों ने कहा--`ऐसा विचार मत
करो | वसुदेव और देवकी तुम्हारे सम्मान्य हैं, इन्हें जीवनदान दो |तुमने
(कन्यादानरूप) जो यज्ञ किया था, वह निष्फल हुआ जाता है, अतः हमारा कहना मान लो |
इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हों, उन्हें सावधानी पूर्वक ले लिया करो |' जब देवकी
के पहला पुत्र उत्पन्न हुआ, तब उसे लेकर वसुदेवजी ने कंस को दिखलाया | बालक को देख
कर कंस हँस पड़ा, उसने सब अपराध क्षमा कर दिये | लेकिन नारदजी ने उसे समझाया--
`कंस ! तुमने यह क्या लड़कपन किया ? तुम जिसका संदेह (जिससे भय) करते हो, वह कहीं
पहले पुत्रके रूप में ही न आया हो |' यह सुनकर कंश ने फिर उस पुत्र को माँग लिया |
इस प्रकार उसने देवकीके सभी पुत्रों का संहार किया | तब देवकी अत्यन्त व्याकुल हो
गयीं | (वे सोचने लगीं) `मैं अपने प्राणों का त्याग कैसे कर दूँ | कंस मेरे वंश का
ही नाश कर रहा है, किस प्रकार मैं अपने जीवन को बचाऊँ | भगवान् श्रीलक्ष्मीनाथ यह
विपत्ति कब दूर करेंगे | मैं और किसे पुकारूँ |' (उसी समय) पृथ्वी ने गाय का रूप
धारण करके शंकरजी और ब्रह्माजी के द्वारपर जाकर पुकार की (कि अब मुझसे असुरों के
पापका भार सहा नहीं जाता) तब सब देवता एकत्र होकर वहाँ गये, जहाँ वे श्रीपुरषोत्तम
निवास करते हैं, जिनकी गति अगम्य और अपार है | (देवताओं की प्रार्थना सुनकर) श्री
हरि ने क्षीरसागर में से ही इस प्रकार उच्च स्वर से कहा -`मैं पृथ्वी का उद्धार
करूँगा, मनुष्य रूप में अवतार धारण करके असुर-कुल का संहार कर दूँगा|' प्रभु ने सभी
देवता, मनुष्य, नाग तथा (दिव्य) पशु-पक्षियों को आज्ञा दी कि `यदि मेरे साथ का सुख
लेना चाहते हो तो गोकुल में मेरे साथ जन्म लो |' जिस माया ने ब्रह्मा और शिवको भी
मोहित किया, उसी ने प्रभु की आज्ञा स्वीकार करके देवकीजी के (सातवें) गर्भ को
रोहिणी जी के उदरमें खींचकर स्थापित कर दिया और स्वयं (यशोदाजी के) गर्भमें निवास
किया |
श्रीहरि के गर्भ-निवाससे माता देवकी के मुख पर इतना प्रकाश प्रतीत होने लगा, मानो
शरत्पूर्णिमा का चन्द्रमा प्रकट हो गया हो, शोकरूपी सब अन्धकार दूर हो गया | उसी
समय कंस (कारागारमें) आकर खड़ा हुआ और (गर्भ की) महिमा देखकर सावधान हो गया |
(वह सोचने लगा) `मेरा शत्रु अपनेपन (विष्णुरूप) को छोड़कर इस बार स्वयं गर्भ में
आया है, दस दिन बीत जाने पर जब माता देवकी अपना मुख (दर्पणमें ) देखने लगीं ,
तब यह समझकर कि मेरे गर्भ में अब कंस का काल आया है, अत्यन्त आनन्द से अपने को
भाग्यवती मानने लगीं | मुनिगण, मनुष्य (यक्ष-किन्नरादि) तथा देवता उनकी वन्दना करने
आये, इससे वे निद्रा से जाग गयीं | अविनाशी परम पुरुष के आने का यह लक्षण है, ऐसा
जानकर सभी देवताओं के प्रति उनका स्नेह हो गया | कुछ समय बीतनेपर माता देवकी के
मन में गर्भजन्य (पुत्रोत्पत्तिका) आलस्य प्रतीत होने लगा | (वे सोचने लगीं-)`किससे
कहूँ, कोई सखी भी पास नहीं है, इस गर्भ (के पुत्र ) को तो छिपा देना चाहती हूँ |'
उन्होंने वसुदेवजी को अपने पास बुलाया (उसी समय) बुधवार के दिन अष्टमी तिथि को जब
रोहिणी नक्षत्र का योग था, समस्त लोकों के स्वामी, आनन्ददाता, अजन्मा प्रभु जन्म
लेकर प्रकट हुए | उनके मस्तक पर मुकुट था, सुन्दर पीताम्बर धारण किये थे, वक्षःस्थल
पर भृगुलता सुशोभित थी, शंख, चक्र, गदा और पद्म हाथौं में विराजमान थे, अत्यन्त
प्रताप होनेपर भी शिशुका वेष था | माता यह स्वरूप देखकर व्याकुल हो गयी, ऐसा चरित्र
(इस प्रकार के पुत्र की उत्पत्ति) उसने कहीं देखा नहीं था | संकुचित होकर वह बैठ
गयी और पतिको पास बुलाया | दोनों ने पुत्र के मुखका दर्शन किया | तब प्रभु ने कहा-)
`माता देवकी ! सुनो, तुम्हारे एक अन्य जन्म की कथा मैं तुम्हें सुनाता हूँ | तुमने
(वरदान) माँगा कि तुम्हारे-जैसा बालक मुझे मिले और कृपा करके यह वरदान मैंने दे
दिया, वैसे तो शिव, सनकादि, ऋषि तथा ब्रह्मादि ज्ञानी देवताओं के ध्यान में भी मैं
नहीं आता हूँ | किंतु मेरा स्वरूप ही भक्तवत्सल है, अपने विरदको मैं लज्जित क्यों
करूँ|' (अर्थात भक्तवत्सलतावश अपने वरदान के कारण अब तुम्हारा पुत्र बना हूँ) `हे
वसुदेवजी ! आप परम भाग्यवान हैं, अब मुझे गोकुल ले जाइये |' यह कहकर माया-मोह
में उलझेकी भाँति शिशु बनकर रूदन करने लगे | (वसुदेवजी सोचने लगे -) `बादल छाये हैं
बिजली बार-बार पृथ्वी तक चमकती (वज्रपात होता) है,
यमुना में जल उमड़ रहा है | आगे जाऊँ तो गहरा यमुना-जल है और पीछे सिंह लगता
(दहाड़ रहा) है |' ( यह सोचते हुए- ) सभी देवताओंमें प्रेम किये (देवताओं को मनाते
हुए) श्रीवसुदेवजी सीधे हृद (गहरे जल) में घुसे | पानी क्रमशः घुटनों, जंघा, कमर,
कण्ठ तक बढ़ता जब नाक तक आ गया, तब श्यामसुन्दर को दोनों हाथों में उठा लिया |
(उसी समय श्रीकृष्णचन्द्र ने ) चरण बढ़ाकर यमुना का स्पर्श कर दिया , इससे उन्होंने
इतना जल घटा दिया कि वह केवल पैर के तलवेतक ही रह गया |
शेषजी अपने सहस्त्र फणोंसे ऊपर छाया किये चल रहे थे,इस प्रकार
(शीध्रतापूर्वक वसुदेवजी )गोकुलको दौड़े!उन्होंने मनमें कोई शंका-संदेह नही किया,
सीधे नन्दभवनमें जा पहुँचे! (वहाँ यशोदाजीकी गोदमें कन्यारुपसे)
सोयी योगमायाको देखकर वसुदेवजीने गोदमें उठा लिया!उसे
लेकर वसुदेवजी मथुरा आ गये!उन्होंने पूरे नगरमें यह बात प्रकट की कि
देवकीके गर्भसे पुत्री उत्पन्र हुई हैं,किंतु राजा कंसने इस बातका विश्वास
नहीं किया!(कंसके द्रारा) पत्थरपर पटकते समय(उसकी)दोनों भुजाओंपर
चरण-प्रहार करके वह आकाशमें चली गयी!आकाशसे वह देवीरुपमें
बोली-कंस!तेरी मृत्यु पास आ गयी है!जैसे मीन जालमें खेलते हुए
कुछ न समझते हों और उन्हें अपना काल न दीखता हो,कंस!तू वैसा
ही हो रहा है!तेरे काल श्रीयादवनाथ श्रीकृष्ण तो व्रजमें उत्पन्र हो गये
है!यह सुनकर कंसने देवकीके आगे उनके चरणोंपर मस्तक रख दिया(और बोला-)
मैंने तुम्हारे बालक मारकर बड़ा अपराध किया.किंतु जिसके
भाग्यमें जो लिखा है,वह मिटाया नहीं जा सकता(उन बालकोंके भाग्यमें
मेरे हाथों मरना ही लिखा था,इसमें मेरा कया दोष?)फिर वह अपने
सहा यकोंको बुलाकर उनकी सम्मति पूछने लगा कि मेरे शत्रुने किसके घर
जन्म लिया है!(इस चिन्तामें)रात्रिके चारों प्रहर सुखदायी शय्यापर पड़े
रहनेपर भी उसे तनिक भी निद्रा नहीं आयी थी!(उधर गोकुलमें)जब
श्रीनन्दरानी जागीं,तब उन्होंने पुत्रका मुख देखा-(पुत्रोत्पतिकी सूचनाके लिये)
आनन्दपूर्वक तुरही बजवायी!सोनेके कलश सजाये गये हवन तथा ब्राह्मणों का पूजन हुआ,
भवन चन्दन से लीपे गये, गोप अनेक रंगों के वस्त्र पहिनकर सज गये,गोपियाँ एकत्र होकर
मंगल-गान करने लगीं | देवता आकाशसे नाना प्रकार के पुष्पोंकी वर्षा करने लगे, पूरा
गोकुल पुष्पों से आच्छादित हो गया | प्रेममग्न सभी नर-नारी आनन्दमें भरे अनेक
प्रकार की क्रीड़ा करने लगे | सभी नारियाँ अत्यन्त प्रेम-विभोर होकर अभयदुन्दुभी
बजाते यशोदाजी को (प्रेमभरी) गाली गाने लगीं | श्रीनन्दबाबा प्रमुदित मन नाचने लगे,
गोपगण ताली बजाने लगे | सूरदासजी कहते हैं कि मथुरा के गर्व का नाश करनेवाले मेरे
प्रभु गोकुल में प्रकट हो गये हैं |

 

National Record 2012

Most comprehensive state website
Bihar-in-limca-book-of-records

Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)

See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217