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धागे निर्मल वर्मा

धागे निर्मल वर्मा

 

पेज 2

-- केशी से कहेंगे कि वह अपना ग्रामोफोन ले चले। बिलकुल पिछले साल की तरह।

-- रूनी, इट विल बी वण्डरफुल। सच, बिलकुल पिछले साल की तरह।

पिछला साल। एक ठण्डी, बर्फ़ीली-सी झुरझुरी मेरी पीठ पर सिमट आई। वह सितम्बर का महीना था। मैं शैल को लेकर दिल्ली आई थी। सब-कुछ पीछे छोड़ आई थी, अपना घर-बार, अपनी गृहस्थी। सबने यही समझा था कि मैं कुछ दिनों के लिये रहने आई हूं। कुछ दिन रहूंगी और फिर वापस चली जाऊंगी। यही सितम्बर का महीना था हम पहाड़ी पर पिकनिक के लिये गये थे। बेर की झाड़ियों के पीछे मैं ने साहस बटोर कर मीनू से पहली बार बात कही थी, जो इतने दिनों से मैं अपने में छिपाती चली आ रही थी। मीनू ने समझा था मैं हँसी कर रही हूं, किन्तु अगले पल जब उसने मेरे चेहरे को देखा तो वह चुप रही थी, कुछ भी नहीं बोली थी एकदम फटी फटी आंखों से मुझे निहारती रही थी

कल उस बात को बीते एक साल हो जायेगा। कल हम फिर पिकनिक के लिये जाएंगे।

गेस्टरूम की बत्ती जली है। मैं दरवाज़े के पास जाकर ठिठक जाती हूं। पीछे देखती हूं। फाटक के पास चांदनी में मेरी छाया लॉन के आर-पार खिंच गई है। लगता है, रात सफ़ेद है, बंगले की छत, दूर पहाडी के टीले, घास पर एक दूसरे को काटती छायाएं--- सब कुछ सफ़ेद हैं। घास के तिनके अलग-अलग नहीं दीखते। एक हरा-सा धब्बा बन कर पेड़ों के नीचे वे एक दूसरे के संग मिल गये हैं।

यहाँ से उस कमरे का कोना दीखता है जिसमें मीनू और केशी सोते हैं। कोना भी नहीं, केवल दीवार का एक टुकडा जो झाड़ियों से ज़रा दूर है। लेकिन लगता है जैसे झाड़ियाँ अंधेरे के संग-संग दीवार के पास तक खिसक आई हैं। एक क्षण के लिये भ्रम होता है कि मैं भूल से यहाँ आ गई हूँ, कि यह मीनू का बंगला नहीं है, वह लॉन नहीं है, जिसके कोने-कोने से मैं परिचित हूँ। जब कभी कोई पक्षी झाड़ियों से बाहर निकल कर उड़ता है, उसके डैनों की छाया घूमते हुए लहू की तरह चांदनी पर फिसलने लगती है।

कमरे में दबे पाँवों से आई। मेरे पलंग के पास शैल का बिस्तर लगा था। चप्पल उतार कर मैं धीरे से उसके पास बैठ गई। देर तक उसकी मुंदी आँखों को देखती रही। एक बार उसने आँखें खोलकर मुझे देखा था केवल निमिष भर के लिये, किन्तु नींद ने दूसरे ही क्षण उसकी पलकों को अपने में ओढ़ लिया था।

बत्ती बुझा कर मैं अपने बिस्तर पर लेट गयी। चांदनी इतनी साफ़ है कि बुक केस पर रखी केशी की किताब का टाइटल भी अंधेरे में चमक रहा है-- 'टाइम, स्पेस एण्ड आर्किटैक्चर'। बाहर की खुली खिड़की पर शैल के झूले की रस्सी टंगी है। उसकी छाया खिड़की की जाली पर तिरछी रेखाओं सी पड़ रही है। जब हवा का झोंका आता है, तो ये रेखाएं मानो डरकर काँपती हुई एक-दूसरे से सट जाती हैं।

न जाने क्यों मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगता है। शायद मेरा भ्रम रहा होगा और मैं साँस रोके लेटी रहती हूँ। कमरे की चुप्पी में एक अजीब सी गरमाहट है जैसे कोई चीज़ दीवारों से रिस-रिस कर बहती हुई मेरे पलंग के इर्द-गिर्द जमा हो गयी हो। लगता है, जैसे पास लेटी शैल की सांस मेरे पास आते-आते भटक जाती है और मैं उसे सुन नहीं पाती।

सुनती हूँ। कुछ देर ठहरकर, कुछ निस्तब्ध पलों के बीत जाने के बाद दुबारा सुनती हूँ। ना, पहला भ्रम महज भ्रम नहीं था। बीच के गलियारे में धीमी-सी आहट हुई है। कुछ देर तक सन्नाटा रहता है। कई मिनट इसी तरह अनिश्चित प्रतीक्षा में बीत जाते हैं। बाहर का दरवाज़ा हवा चलने से कभी खुल जाता है, कभी बन्द हो जाता है। जब खुलता है तो गलियारे में धूल से सनी पत्तियां दीवार से चिपटी हुई तितलियों की तरह उड़ने लगती हैं।

गलियारे के सामने लाइब्रेरी की बत्ती जली है।खूंटी से मीनू की शॉल उतार कर मैं ने ओढ ली। बाहर आई नंगे पांव। लाइब्रेरी का दरवाज़ा खुला था। टेबल लैम्प के हरे शेड के पीछे केशी का चेहरा छिप गया है सोफ़े पर केवल उसकी टांगे दिखाई देती हैं। सामने तिपाई पर कोन्याक की बोतल और खाली गिलास पडे हैं उनकी छाया हू-ब-हू वैसी ही स्टिल-लाइफ की तरह दीवार पर खिंच आई है। बिलकुल चुप, बिलकुल स्थिर।

-- तुम अभी सोई नहीं?

उसने मुझे देख लिया था। मैं कुछ देर तक चुपचाप देहरी पर खड़ी रही।

-- इतनी रात यहाँ क्या कर रहे हो?

वह सोफ़े पर बैठ गया। उसकी उंगली अभी तक किताब के पन्नों के बीच दबी थी।

-- मीनू को पसन्द नहीं कि मैं उसके कमरे में पियूं। रात को मैं अकसर यहाँ आ जाता हूँ।

-- यहीं सोते हो? --मेरा स्वर कुछ ऐसा था कि ख़ुद मुझ से नहीं पहचाना गया।'

-- कभी-कभी । एनी वे, इट हार्डली मेक्स एनी डिफरेन्स, इज इट? --वह धीमे से हँस दिया। मैं उसकी ओर देखती रही। बाहर अंधेरे में बजरी की सड़क पर भागती पत्तियों का शोर हो रहा था। कुछ देर तक हम दोनों रात की इन अजीब, खामोश आवाज़ों को सुनते रहे।

-- मैं तुम्हारे कमरे तक आया था...फिर सोचा, शायद तुम सो गई हो।

-- कुछ कहना था?

-- बैठ जाओ।

केशी का चेहरा पत्थर सा भावहीन और शान्त था। उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे मैं पढ़ पाती। उसकी छाया आधी ग्रामोफ़ोन पर, आधी दीवार पर पड़ रही है। ग्रामोफ़ोन और किताबों की शेल्फ़ के बीच एक छोटी-सी मेज है, जिस पर रिकार्डों का बंडल रखा है, जो शायद अभी तक नहीं खोला गया

-- जबलपुर से चिट्ठी आई है।

केशी ने मेरी ओर नहीं देखा। वह शायद यह भी नहीं जानता कि मैं उसकी ओर देख रही हूँ।

-- तुमसे पूछना था कि क्या उत्तर दूँ। --उसने कहा।

मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ, लेकिन केशी चुप है। वह भी शायद प्रतीक्षा कर रहा है।

-- तुम्हें क्यों भेजा है?

-- पत्र तुम्हारे लिये है, सिर्फ लिफ़ाफ़े पर मेरा नाम है। --केशी ने जेब से लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे ग्रामोफ़ोन पर रख दिया।

-- इसे पढ लो।

लिफ़ाफ़े पर जो हस्तलिपी है, उसे पहचानती हूँ। उसे देखकर जिस व्यक्ति का चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है, उसे पहचानती हूँ। क्या मैं कभी अपने अतीत से छुटकारा नहीं पा सकूंगी वह हमेशा छाया की तरह पीछे आता रहेगा?

-- पढ़ोगी नहीं?

-- क्या होगा?

केशी हताश भाव से मुझे देखता है। मैं जानती हूँ, वह क्या सोच रहा है।

-- तुम्हें बुलाया है।

-- जानती हूँ।

-- वह एक बार शैल को देखना चाहते हैं।

-- वह शैल के पिता हैं, जब आकर देखना चाहें, देख लें। अपने संग ले जाना चाहें, ले जायें। मैं रोकूंगी नहीं।

मैं रोकूंगी नहीं, यही मैं ने कहा था। केशी निर्विकार भाव से मुझे देखता रहा था।

वह सोफ़े से उठ खडा हुआ। मैं अपनी कुर्सी से चिपकी बैठी रहती हूँ। मुझे लगता है, मैं रात भर इसी कुर्सी पर बैठी रहूंगी, रात भर केशी खिडक़ी के पास खडा रहेगा।

-- रूनी, तुमने सोचा क्या है? क्या ऐसे ही रहोगी?

मेरी आँखें अनायास उसके चेहरे पर उठ आईं थीं। कुछ है मेरे भीतर जो बहुत निरीह है, बहुत विवश है। केशी उसे नहीं देखता है। अगर देखता है तो भी शायद आँखें मूंद कर। इस क्षण भी वह चुप है। उसकी भावहीन, पथरीली आंखों में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे मैं ले सकूँ, जो वह मुझे दे सके। मुझे अचानक शर्म आती है-- अपने पर, अपनी कमज़ोरी पर और मैं हँस पडती हूँ। मेरी समूची देह बार-बार किसी झटके से हिल उठती है।

-- रूनी!

केशी का मुख एकदम म्लान-सा हो उठा था। उसका स्वर मुझे अजीब-सा लगा था। मैं हंसते-हंसते सहसा चुप हो गयी। वह धीमे झिझकते कदमों से मेरे पास चला आया था। बीच में ग्रामोफ़ोन था, ग्रामोफ़ोन पर लिफ़ाफ़ा रखा था।

-- रूनी, मुझे तुमसे कुछ और नहीं कहना है। तुम चाहो तो, अपने कमरे में जा सकती हो।

मैं कुछ नहीं कहती। मैं सिर्फ़ उसकी कमीज़ का खुला कॉलर देख रही हूँ, जिसके पीछे उसकी छाती के भूरे बाल बिजली की रोशनी में चमक रहे हैं। दूसरे कमरे में कभी-कभी सोती हुई शैल की साँसे सुनाई दे जाती हैं। उन्हें सुनकर मन फिर स्थिर हो जाता है। लगता है, उन नरम साँसों की आहट ने कमरे की हवा को बहुत हल्का सा कर दिया है।

-- सुना है, तुम कुछ नये रिकॉर्ड लाए हो?

-- हाँ, सुनोगी?

-- अभी नहीं, शैल सो रही है।

-- हम तुम्हारे हॉस्टल गये थे।

-- हां, मीनू ने कहा था। तुमने कार का हॉर्न बजाया था।

National Record 2012

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