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धागे निर्मल वर्मा

धागे निर्मल वर्मा

 

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-- तुमने सुना था? तुम नीचे क्यों नहीं आईं? हम पोर्च के बाहर खडे़ रहे थे।

-- मैं सो रही थी। मुझे लगा, मैं सोते हुए सुन रही हूँ।

कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे। मुझे लगा हम दोनों किसी छोटे-से स्टेशन के वेटिंग रूम में बैठे हैं। दोनों चुपचाप अपनी अपनी ट्रेनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु बीच के इन लम्हों को हम अच्छी तरह गुज़ार देना चाहते हैं ताकि बाद में हम दोनों में से किसी को एक दूसरे के प्रति कोई गिला, कोई शिकायत न रहे।

-- यू वोन्ट माइन्ड, रूनी, विल यू? --किन्तु उसने मेरे उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। मैं ने चुपचाप सिर हिला दिया।

ग्लास में कोन्याक ढालते हुए उसने मेरी ओर देखा था।

-- तुम्हें बुरा तो नहीं लगता रूनी? --उसका स्वर बहुत धीमा-सा कोमल हो आया था।

-- मीनू को बुरा लगता है। रात को वह मुझे अपने कमरे में नहीं पीने देती।

मैं चुपचाप उसकी ओर देखती रहती हूँ। लगता है, इस क्षण भी, जब वह मेरे सामने तिपाई पर झुका हुआ पी रहा है, उसमें कुछ ऐसा है जिसके केवल होने भर का आभास होता है, किन्तु जो उंगलियों में आता-आता फिसल जाता है। मैं उसका गोल, पीला चेहरा, गालों की चौड़ी, उभरी हुई हड्डियाँ, तनिक गहरी उदास आँखें देख सकती हूँ। सिर के बाल धीरे धीरे उड़ते जा रहे हैं, जिनके कारण माथा बहुत ऊँचा दिखाई देता है। कुछ चेहरे होते हैं जो तुरन्त अपना प्रभाव अंकित कर जाते हैं। केशी का चेहरा ऐसा नहीं था। उस में कुछ भी ऐसा नहीं था जो दृष्टि को रोक सके, एकाएक स्तम्भित कर सके। वह चेहरा बहुत पुराना है, जिसे देखना नहीं होता, केवल पहचानना होता है। यह अजीब है, किन्तु जब कभी मैं उसके चेहरे को देखती हूँ, पुराने पत्थरों पर ख़ुदा हायरोग्राम याद हो आता है बहुत दूर किन्तु पहचाना-सा ।

-- आज शाम मैं ने तुम्हें खिड़की से देखा था। --उसने कहा।

-- कहाँ?

-- तुम अंधेरे में लॉन में बैठी थीं मैं ने तुम्हें बंगले में आते देखा था। तुम फाटक के भीतर घुसी थीं। तुम घास पर बैठी रही थीं और भीतर किसी को मालूम नहीं हुआ कि तुम हॉस्टल से आ गई हो। अंधेरे में घास पर बैठी हो। वे सब तुम्हारी राह देखते रहे थे।

केशी ने अपने गिलास में कुछ और कोन्याक ढाल ली हालांकि अभी गिलास खाली नहीं हुआ था। वह मेरी ओर नहीं देख रहा। वह खिड़की के बाहर देख रहा है, मानों मैं अब भी कमरे में न होकर अंधेरे लॉन में बैठी हूँ।

-- इन गर्मियों में शायद हम शिमला जायेंगे।

-- हाँ, मीनू ने बताया था।

-- तुम भी हमारे संग चलोगी?

मैं हँसने लगती हूँ। फिर हम ख़ामोश हो जाते हैं। बाहर गलियारे में एक छोर से दूसरे छोर तक सूखे पत्ते भाग रहे हैं। हवा से दरवाज़ा कभी खुलता है, कभी बन्द होता है।

-- केशी, एक बात पूछूँ?

-- क्या रूनी?

-- तुमने मुझे वह पत्र क्यों दिखाया? क्या तुम सचमुच सोचते थे कि मैं वापस लौट जाऊंगी।

-- यह तुम्हारी इच्छा है रूनी।

-- और तुम? --मैं हकला कर चुप हो जाती हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ, आगे कुछ भी कहना बेकार है। लगता है हम दोनों एक ऐसी स्थिति में पहुँच गये हैं, जहां शब्दों के कोई अर्थ नहीं रह जाते, जहाँ हम बिना सोचे-समझे एक दूसरे से झूठ बोल सकते हैं, क्योंकि झूठ कोई मानी नहीं रखता। लगता है शब्दों का झूठ-सच हमसे नहीं जुड़ा है वे अपनी ज़िम्मेदारी पर ख़ुद खडे हैं। उस क्षण मुझे पहली बार पता चला कि जो शब्द हम बोलते हैं, वे कभी-कभी अपने में कितने अकेले हो जाते हैं।

केशी ने धीरे से गिलास उठाया। गिलास के काँच और उंगलियों के बीच रोशनी का धब्बा कोन्याक पर धीरे-धीरे तिर रहा है।

-- तुम यहां हॉस्टल में कब तक रहोगी?

मैं धीरे से हँस देती हूँ।

-- तुम मेरे बारे में कब से सोचने लगे, केशी?

कोन्याक पर केशी की आँखें थिर हैं माथे पर पसीने की हल्की झाँई उभर आई है। उसके होंठ गिलास से चिपके हैं वह पी नहीं रहा।

वह पी नहीं रहा और मैं चुप बैठी हूँ और मुझे लगा कि मुझे कुरसी से उठ जाना चाहिये और अपने कमरे में चला जाना चाहिये, फिर भी मैं बैठी रही और मैं कुछ भी नहीं सोच रही थी, और मुझे ज़रा अजीब लगा था कि मीनू अपने कमरे में सो रही है, और इतनी रात गये मैं केशी के कमरे में बैठी हूँ और दूसरे कमरे में शैल है जो कल मुझे अपने बिस्तर के पास देख हैरान हो जायेगी, और मुझे धीरे-धीरे बहुत देर तक ढेर सी ख़ुशी हो रही है कि कल शाम को मैं वापस अपने हॉस्टल लौट जाऊंगी। वहां मिसेज हैरी हैं, मेरा अकेला कमरा है, निखिल है। ये सब इस बंगले की परिधि से बाहर हैं। केशी के ग्रामोफ़ोन से, ग्रामोफ़ोन पर रखे लिफ़ाफ़े से बाहर हैं वे। मेरा अतीत नहीं जानते और मुझ से कभी कोई ऐसा प्रश्न नहीं पूछते, जिसका कोई उत्तर नहीं है। मेरे पास नहीं है।

निखिल केशी से कितना अलग है! निखिल का सम्बन्ध बहुत सी चीज़ों से है। यदि हम उन्हें समझ लें तो निखिल को जानना सहज है। केशी निखिल नहीं है। उसके डिजाइन, उसके रिकॉर्ड, सब उससे अलग हैं। उसे समझने के लिये केवल उसके पास ही जाया जा सकता है और वह चुप है।

मैं ने एक बार केशी से पूछा था कि वह आर्किटैक्ट है, फिर उसे क्लासिकल म्यूजिक़ से इतना लगाव कैसे उत्पन्न हो गया?

--देयर इज स्पेस --उसने बहुत धीरे से अंग्रेज़ी में कहा था।

-- स्पेस? --मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखती रही थी।

-- हाँ, स्पेस को दोनों ही अपने अपने ढंग से छूते हैं। --उस क्षण उसके होंठों पर झिझकती सी मुस्कुराहट सिमट आई थी।

मैं ने उसकी आँखों में वह अजीब सी दूरी देखी थी, जो उस बूढे़ अंग्रेज़ की आँखों में थी, जिसने हमें सिमिट्री के भीतर जाने से रोक लिया था। तब मैं बहुत छोटी थी। एक शाम अपने नौकर के संग सैर करती हुई शिमले में संजौली की सिमिट्री तक चली गई थी। चारों तरफ पहाड़ियां थीं, बड़े-बड़े पत्थरों के बीच उगती लम्बी घास थी। हम कब्रों को देखना चाहते थे, लेकिन सिमिट्री का फाटक बन्द था। कुछ देर बाद एक बूढ़ा अंग्रेज़ हमारे पास आया था। उसने हमसे पूछा था कि हम वहां, सिमिट्री के सामने, क्यों खड़े हैं।

-- इसका फाटक क्यों बन्द है? --मैं ने पूछा था।

-- हमेशा बन्द रहता है। --उस अंग्रेज़ ने हँसते हुए कहा था-- सो लेट द डेड मे लाई इन पीस।

आज बरसों बाद भी मैं उस बात को भूली नहीं हूं। आज भी जब कभी केशी स्पेस की बात करता है, तो उसकी आँखों में वही आलंघ्य, अपरिचित दूरी का-सा भाव घिर आता है, जो बरसों पहले मैं ने उस अंग्रेज़ की आँखों में देखा था और मुझे लगता है कि सामने बन्द फाटक है, जो कभी कोई नहीं खोलेगा, कब्रें हैं , पहाडी हवा है, और पत्थरों के बीच लम्बी घास है, जो हवा में काँपती है और जो धीरे से मेरे कानों में कह रही है-- लेट द डेड लाइ इन पीस

गलियारा पार करके मैं अपने कमरे में लौट आई थी और अपने बिस्तर पर लेटी रही थी। न जाने कितने मिनट गुज़र गये। देर तक लॉन में झिंगुरों का स्वर सुनाई देता रहा। परदे के रिंग चांदनी में बड़े-बड़े छल्लों-से चमक रहे हैं और जब हवा चलती है तो धीरे से खनखना उठते हैं।

केशी के कमरे की बत्ती का आलोक अधखुले दरवाज़े से निकल कर मेरे संग-संग भीतर चला आया है। बंगले के परे, लॉन के परे पहाडी का मौन है। इस समय भी वहां चांदनी फैली होगी। झाडियों पर, पुराने पत्थरों पर। कोई नहीं जानेगा कि वहाँ टीलों और सदियों पुरानी चट्टानों के बीच एक बेर की झाड़ी है। पिछले साल उस झाड़ी के पीछे मैं ने मीनू से कुछ कहा था। वे शब्द आज भी कहीं कच्चे बेरों के संग पड़े होंगे।

आधी रात को सहसा मेरी आँख खुल गयी थी। शायद खिड़की के सामने झूले की रस्सी की परछांई को देखकर मैं डर गयी थी। रजाई उठाने के लिये मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था क्षण भर के लिये मेरे हाथ कमरे के अंधेरे में फैले रहे थे। मैं एकाएक आतंकित-सी हो उठी थी। मुझे लगा था जैसे मेरी टांगे एकदम बर्फ़-सी ठण्डी हो गयी हैं। मैं ने शैल के बिस्तर की ओर देखा। वह सो रही थी, उसका आधा चेहरा कम्बल में छिपा था, आधे चेहरे पर फीकी-सी चांदनी सरक आई थी।

मैं बिस्तर से उतर कर कमरे की देहरी तक चली आई। गलियारे में निपट अंधेरा था। लायब्रेरी की बत्ती गुल हो गई थी, लेकिन दरवाज़ा खुला था। मैं देहरी पर खड़ी रही।

एक आवाज़ है। आवाज़ भी नहीं, केवल एक प्रवाह है, जो टूट रहा है । जितना टूट रहा है, उतना ही ऊपर उठ रहा है। हवा से भी पतली एक चमकीली झाँई धीमे, बहुत धीमे, एक उखडी, बहकी हुई सांस की मानिन्द मेरे पास चली आती है। चली आती है और उसे कोई नहीं रोकता, जैसे वह अपना दबाव ख़ुद है। ख़ुद अपने दबाव के नीचे खिंच रही है। लगता है जैसे हवा स्वयं एक घूमते हुए घेरे के बीच आ गई हो, भूल से फंस गई हो और उडने के लिये, उस घेरे से मुक्ति पाने के लिये अपने पंख फडफ़डा रही हो।

-- केशी। --मैं ने धीरे से कहा-- केशी --मैं अंधेरे में खडी रही देहरी पर। मुझे लगता है जैसे मेरे भीतर बादल का एक श्यामल टुकड़ा आ समाया है और वह बूंद-बूंद टपक रहा है। मैं उसके नीचे खड़ी हूं और भीग रही हूं, देर तक खड़ी भीग रही हूँ!

शायद कोई लांग-प्लेयिंग रिकॉर्ड रहा होगा क्योंकि जब तक मैं सो नहीं गई, वह बजता रहा था। आज केशी नये रिकॉर्ड लाया है। जब तक वह सब नहीं बजा लेगा तब तक उसे शान्ति नहीं मिलेगी।

मैं करवट बदल कर लेट जाती हूँ - मैं ने अपना एक हाथ शैल के तकिये के नीचे रख दिया और मैं धीरे धीरे उसके पास खिसक आती हूँ। मैं चाहती हूँ कि उसकी देह की गरमाई अपने में खींच लूँ।

चांदनी का एक चौकोर, बित्ते-भर का टुकड़ा केशी की किताब पर पड़ रहा है स्पेस, टाइम एण्ड आर्किटैक्चर । मैं देर तक उस टाइटल को देखती रहती हूँ। फिर पलकें झुक जाती हैं। सोने के पहले केवल एक धुंधला-सा विचार बह आता है

कल हम सब पिकनिक करने पहाड़ी पर जाएंगे

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