मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

दूसरा अध्याय- जलन बुरी बला है

पेज- 10

पूर्णा ने आते ही सब स्त्रियों को वहॉँ से हटा दिया, प्रेमा को इत्र सुघाया केवडे और गुलाब का छींटा मुख पर मारा। धीरे धीरे उसके तलवे सहलाये, सब खिड़कियॉँ खुलवा दीं। इस तरह जब ठंडक पहुँची तो प्रेमा ने ऑंखे खोल दीं और चौंककर उठ बैठी। बूढ़ी मॉँ की जान में जान आई। वह पूर्णा की बलायें लेने लगी। और थोड़ी देर में सब स्त्रियाँ प्रेमा को आशीर्वाद देते हुए सिंधारी। पूर्णा रह गई। जब एकांत हुआ तो उसने कहा—प्यारी प्रेमा। ऑंखे खोलो। यह क्या गत बना रक्खी है।
प्रेमा ने बहुत धीरे से कहा—हाय। सखी मेरी तो सब आशाऍं मिटटी में मिल गयीं।
पूर्णा—प्यारी ऐसी बातें न करों। जरा दिल को सँभालो और बताओ तुमको यह खबर कैसे मिली?
प्रेमा—कुछ न पूछो सखी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ (रोकर) हाय, दिल बैठा जाता है। मैं कैसे जीऊँगी।
पूर्णा—प्यारी जरा दिल को ढारस तो दो। मै अभी सब पता लगये देती हूँ। बाबू अमृतराय पर जो दोष लोगों ने लगाया है वह सब झूठ है।
प्रेमा—सखी, तुम्हारे मुँह में घी शक्कर। ईश्वर करें तुम्हारी बातें सच हों। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली—कहीं एक दम के लिए मेरी उस कठकलेजिये से भेट हो जाती तो मैं उनका क्षेम कुशल पूछती। फिर मुझे मरने का रंज न होता।
पूर्णा—यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको देख न सके। मुझसे कहो मैं तांबे के पत्र पर लिख दूं कि अमृतराय अगर ब्याह करेंगे तो तुम्हीं से करेंगे। तुम्हारे पास उनके बीसियो पत्र पड़े है। मालूम होता है किसी ने कलेजा निकाल के धर दिया है। एक एक शब्द से सच्चा प्रेम टपकता है। ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता। प्रेमा—यही सब सोच सोच कर तो आज चार बरस से दिल को ढारस दे रही हूं। मगर अब उनकी बातों का मुझे विश्वास नहीं रहा। तुम्हीं बताओ, मैं कैसे जानू कि उनको मुझसे प्रेम है? आज चार बरस के दिन बीत गयें । मुझे तो एक एक दिन काटना दूभर हो रहा है और वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। मुझे कभी कभी उनके इस टालमटोल पर ऐसी झुँझलाहट होती है कि तुमसे क्या कहूं। जी चाहता है उनको भूल जाऊँ। मगर कुछ बस नहीं चलता। दिल बेहया हो गया।
यहॉँ अभी यही बातें हो रही थी कि बाबू कमलाप्रसाद कमरे में दाखिल हुए। उनको देखते ही पूर्णा ने घूघँट निकाल ली और प्रेमा ले भी चट ऑंखो से ऑंसू पोंछ लिए और सँभल बैठी। कमलाप्रसाद—प्रेमा, तुम भी कैसी नादान हो। ऐसी बातों पर तुमको विश्वास क्योंकर आ गया? इतना सुनना था कि प्रेमा का मुखड़ा गुलाब की तरह खिल गया। हर्ष के मारे ऑंखे चमकने लगी। पूर्णा ने आहिस्ता से उसकी एक उँगली दबायी। दोनों के दिल धड़कने लगे कि देखें यह क्या कहते है।
कमलाप्रसाद—बात केवल इतनी हुई कि घंटा भर हुआ, लाला जी के पास बाबू दाननाथ आये हुए थे। शादी ब्याह की चर्चा होने लगी तो बाबू साहब ने कहा कि मुझे तो बाबू अमृतराय के इरादे इस साल भी पक्के नहीं मालू होते। शायद वह रिफार्म मंडली में दाखिल होने वाले है। बस इतनी सी बात लोगों ने कुछ का कुछ समझ लिया। लाला जी अधर बेहोश होकर गिर पड़े। अम्मा उधर बदहवास हो गयी। अब जब तक उनको संभालू कि सारे घर में कोलाहल होने लगा। ईसाई होना क्या कोई दिल्लगी हैं। और फिर उनको इसकी जरूरत ही क्या है। पूजा पाठ तो वह करते नहीं तो उन्हें क्या कुत्ते ने काटा है कि अपना मत छोड़ कर नक्कू बनें। ऐसी बे सर-पैर की बातों पर एतबार नहीं करना चाहिए। लो अब मुँह धो डालो। हँसी-खुशी की बातचीत की। मुझे तुम्हारे रोने-धोने से बहुत रंज हुआ। यह कहकर बाबू कमलाप्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हंसकर कहा—सुना कुछ मैं जो कहती थी कि यह सब झूठ हैं। ले अब मुंह मीठा करावो।
प्रेमा ने प्रफुल्लित होकर पूर्णा को छाती से लिपटा लिया और उसके पतले पतले होठों को चूमकर बोली—मुँह मीठा हुआ या और लोगी?

 

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