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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
दूसरा अध्याय- जलन बुरी बला है
पेज- 9
अगर घर में कोई ऐसा था कि जिसको अमृतराय के ईसाई होने का विश्वास न आया तो वह प्रेमा केभाई बाबू कमला प्रसाद थे। बाबू सहाब बड़े समझदार आदमी थे। उन्होंने अमृतराय के कई लेख मासिकपत्रों में देखे थे, जिनमें ईसाई मत का खंडन किया गया था। और ‘हिन्दू धर्म की महिमा’ नाम की जो पुस्तक उन्होंने लिखी थी उसकी तो बड़े-बड़े पंडितो ने तारीफ की थी। फिर कैसे मुमकिन था कि एकदम उनके खयाल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते। कमलाप्रसाद यही सोच रहे थे किदाननाथ आते दिखायी दिये। उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी। कमलाप्रसाद ने उनको बड़े आदर से बैठाया और पूछने लगे—यार, यह खबर कहॉं से उड़ी? मुझे तो विश्वास नहीं आता।
दाननाथ—विश्वास आने की कोई बात भी तो हो। अमृतराय का ईसाई होना असंभव है। हां वह रिफार्म मंडली में जा मिले है, मुझसे भूल हो गयी कि यही बात तुमसे न कही।
कमलाप्रसाद—तो क्या तुमने लाला जी से यह कह दिया?
दाननाथ ने संकोच से सर झुका कर कहा—यही तो भुल हो गई। मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे। आज शाम को जब अमृतराय से मुलाकात करने गया तो उन्होने बात बात में कहा कि अब मैं शादी न करूँगा। मैंने कुछ न सोचा विचारा और यह बात आकर मुंशी जी से कह दी। अगर मुझको यह मालूम होता कि इस बात का यह बतंगड हो जायगा तो मैं कभी न कहता। आप जानते हैं कि अमृतराय मेरे परम मित्र है। मैंने जो यह संदेशा पहुँचाया तो इससे किसी की बुराई करने का आशय न था। मैंने केवल भलाइ की नीयत से यह बात कही थी। क्या कहूँ, मुंशी जी तो यह बात सुनते ही जोर से चिल्ला उठे—‘वह ईसाई हो गया। मैंने बहुतेरा अपना मतलब समझाया मगर कौन सुनता है। वह यही कहते मूर्छा खाकर गिर पड़े।
कमलाप्रसाद यह सुनते ही लपककर अपने पिता के पास पहूंचे। वह अभी तक बेसुध थे। उनको होश में लाये और दाननाथ का मतलब समझाया और फिर घर में पहूंचे। उधर सारे मुहल्ले की स्रित्रया प्रेमा के कमरे में एकत्र हो गयी थीं और अपने अपने विचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबें कर रही थी। मगर अब तक किसी से कुछ न बन पड़ा। निदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती दिखायी दी। उसको देखते ही सब औरतो ने शोर मचाया जो पूर्णा आ गयी। अब रानी को चेत आ जायेगी। पूर्णा एक ब्राह्मणी थी। इसकी उम्र केवल बीस वर्ष की होगी। यह अति सुशीला और रूपवती थी। उसके बदन पर सादी साड़ी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते थे। उसका विवाह पंडित बसंतकुमार से हुआ था जो एक दफ्तर में तीस रूपये महीने के नौकर थे। उनका मकान पड़ोस ही में था। पूर्णा के घर में दूसरा कोई नथा। इसलिए जब दस बजे पंडित जी दफ्तर को चले जाते तो वह प्रेमा के घर चली आती और दोनो सखिया शाम तक अपने अपने मन की बातें सुना करतीं। प्रेमा उसको इतना चाहती थी कि यदि वह कभी किसी कारण से न आ सकती तो स्वयं उसके धर चली जाती। उसे देखे बिना उसको कल न पड़ती थी। पूर्णा का भी यही हाल था।
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