मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

छठा अध्याय - मुये पर सौ दुर्रे

पेज- 36

भाभी तो यह चाहती ही थीं कि छेड़-छाड़ के लिए कोई मौका मिले। यह प्रश्न सुनते ही तिनक का बोली—क्या बताऊ कैसे चली? अब से जब तुम्हारे पास आया करूँगी तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करूँगी। तुम्हारी तरह सबका लोहू थोड़े ही सफेद हो गया है कि चाहे किसी की जान निकल, जाय, घी का घड़ा ढलक जाए, मगर अपने कमरे से पॉँव बाहर न निकाले।
प्रेमा ने वह सवाल यों ही पूछ लिया था। उसके जब यह अर्थ लगाये गये तो उसको बहुत बुरा मालूम हुआ। बोली—भाभी, तुम्हारे तो नाक पर गुस्सा रहता है। तुम जरा-सी बात का बतगंढ बना देती हो। भला मैंने कौन सी बात बुरा मानने की कही थी?
भाभी—कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो मानो मुँह से फूल झाड़ती हो। तुम्हारे मुँह में मिसरी घोली हुई न। और सबके तो नाक पर गुससा रहता है, सबसे लड़ा ही करते है।
प्रेमा—(झल्लाकर) भावज, इस समय मेरा तो चित्त बिगड़ा हुआ है। ईश्वर के लिए मुझसे मत उलझो। मै तो यों ही अपनी जान को रो रही हूं। उस पर से तुम और भी नमक छिड़कने आयीं।
भाभी—(मटककर) हां रानी, मेरा तो चित्त बिड़ा हुआ है, सर फिरा हुआ है। जरा सीधी-सादी हूँ न। मुझको  देखकर भागा करो। मै। कटही कुतिया हूं, सबको काटती चलती हूं। मैं भी यारों को चुपके-चुपके चिटठी-पत्री लिखा करती, तसवीरें बदला करती तो मैं भी सीता कहलाती और मुझ पर भी घर भर जान देने लगता। मगर मान न मान मैं तेरा मेहमान। तुम लाख जतन करों, लाख चिटिठयॉँ लिखो मगर वह सोने की चिड़िया हाथ आनेवाली नहीं। यह जली-कटी सुनकर प्रेमा से जब्त न हो सका। बेचारी सीधे स्वभाव की औरत थी। उसका वर्षो से विरह की बग्नि में जलते-जलते कलेजा और भी पक गया था। वह रोने लगी।
भावज ने जब उसको रोते देखा तो मारे हर्ष के ऑंखे जगमगा गयीं। हत्तेरे की। कैसा रूला दिया। बोली—बिलखने क्या लगीं, क्या अम्मा को सुनाकर देशनिकाला करा दोगी? कुछ झूठ थोड़ी ही कहती हूँ। वही अमृतराय जिनके पास आप चुपके-चुपके प्रेम-पत्र भेजा करती थी अब दिन-दहाड़े उस रॉँड़ पूर्णा के घर आता है और घंटो वहीं बैठा रहता है। सुनती हूँ फूल के गजरे ला लाकर पहनाता है। शायद दो एक गहने भी दिये है।

 

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