मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

छठा अध्याय - मुये पर सौ दुर्रे

पेज- 37

प्रेमा इससे ज्यादा न सुन सकी। गिड़गि कर बोली—भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं मुझ पर दया करो। मुझे जो चाहो कह लो। (रोकर) बड़ी हो, जी चाहे मार लो। मगर किसी का नाम लेकर और उस पर छ़ठे रखाकर मेरे कदल को मत जलाओ। आखिर किसी के सर पर झूठ-मूठ अपराध क्यों लगाती हो।
प्रेमा ने तो यह बात बड़ी दीनता से कही। मगर छोटी सरकार ‘छुद्दे रखकर’ पर बिगड़ गयीं। चमक कर बोलीं—हॉँ, हॉँ रानी, मैं दूसरों पर छुद्दे रखकर तुमको जलाने आती हूंन। मैं तो झूठ का व्यवहार करती हूँ। मुझे तुम्हारे सामने झूठ बोनले से मिठाई मिलती होगी। आज मुहल्ले भर में घर घर यही चर्चा हो रही है। तुम तो पढ़ी लिखी हो, भला तुम्हीं सोचो एक तीस वर्ष के संडे मर्दवे का पूर्णा से क्या काम? माना कि वह उसका रोटी-कपड़ा चलाते है मगर यह तो दुनिया है। जब एक पर आ पड़ती है तो दूसरा उसके आड़ आता है। भले मनुष्यों का यह ढंग नहीं है कि दूसारें को बहकाया करें, और उस छोकरी को क्या को ई बहकायेगा वह तो आप मर्दो पर डोरे डाला करती है। मैंने तो जिस दिन उसकी सूरत देखी रथी उसी दिन ताड़ गयी थी कि यह एक ही विष की गांठ हैं। अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि सबको झमकड़ा दिखाने लगी। दूल्हा क्या मरा मानो एक बला दूर हुई। कल जब वह यहॉँ आई थी तो मै बाल बुंधा रही थी। नहीं तो डेउढ़ी के भीतर तो पैर धरने ही नहीं देती। चुड़ैल कहीं की, यहॉँ आकर तुम्हारी सहेली बनती है। इसी से अमृतराय को अपना यौवन दिखाकर अपना लिया। कल कैसा लचक-लचक कर ठुमुक-ठुमुक् चलती थी। देख-देख कर ऑंखे फूटती थीं। खबरदार, जो अब कभी, तुमने उस चुडैल को अपने यहॉँ बिठाया। मै उसकी सूरत नहीं देखना चाहती। जबान वह बला है कि झूठ बात का भी विश्वास दिला देती है। छोटी सरकार ने जो कुछ कहा वह तो सब सच था। भला उसका असर क्यों न होता। अगर उसने गजरा लिये हुए जाते न देखा होता तो भावज की बातों को अवश्य बनावट समझती। फिर भी वह ऐसी ओछी नहीं थी कि उसी वक्त अमृतराय और पूर्णा को कोसने लगती और यह समझ लेती कि उन दोनों में कुछ सॉँठ-गॉँठ है। हॉँ, वह अपनी चारपाइ पर जाकर लेट गयी और मुँह लपेट कर कुछ सोचने लगी।

 

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