प्रेमा को तो पंलंग पर लेटकर भावज की बातों को तौलने दीजिए और हम मर्दाने में चले। यह एक बहुत सजा हुआ लंबा चौड़ा दीवानखाना है। जमीन पर मिर्जापुर खुबसूरत कालीनें बिछी हुई है। भॉँति-भॉँति की गद्देदार कुर्सियॉँ लगी हुई है। दीवारें उत्तम चित्रों से भूक्षित है। पंखा झला जा रहा है। मुंशी बदरीप्रसाद एक आरामकुर्सी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ़ रहे है। उनके दायें-बायें की कुर्सियों पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है। वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल हैं और उनके बगल में बाबू दाननाथ है। दाहिनी तरफ बाबू कमलाप्रसाद मुंशी झंम्मनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे है। बायीं और दो तीन और आदमी है जिनको हम नहीं पहचानते। कई मिनट तक मुँशी बदरीप्रसाद अखबार पढ़ते रहे। आखिर सर उठाया और सभा की तरफ देखकर बड़ी गंभीरता से बोले—बाबू अमुतराय के लेख अब बड़े ही निंदनीय होते जाते है।
|