मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

छठा अध्याय - मुये पर सौ दुर्रे

पेज- 38

प्रेमा को तो पंलंग पर लेटकर भावज की बातों को तौलने दीजिए और हम मर्दाने में चले। यह एक बहुत सजा हुआ लंबा चौड़ा दीवानखाना है। जमीन पर मिर्जापुर खुबसूरत कालीनें बिछी हुई है। भॉँति-भॉँति की गद्देदार कुर्सियॉँ लगी हुई है। दीवारें उत्तम चित्रों से भूक्षित है। पंखा झला जा रहा है। मुंशी बदरीप्रसाद एक आरामकुर्सी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ़ रहे है। उनके दायें-बायें की कुर्सियों पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है। वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल हैं और उनके बगल में बाबू दाननाथ है। दाहिनी तरफ बाबू कमलाप्रसाद मुंशी झंम्मनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे है। बायीं और दो तीन और आदमी है जिनको हम नहीं पहचानते। कई मिनट तक मुँशी बदरीप्रसाद अखबार पढ़ते रहे। आखिर सर उठाया और सभा की तरफ देखकर बड़ी गंभीरता से बोले—बाबू अमुतराय के लेख अब बड़े ही निंदनीय होते जाते है।
गुलजारीलाल—क्या आज फिर कुछ जहर उगला?
बदरीप्रसाद—कुछ न पूछिए, आज तो उन्होंने खुली-खुली गालियॉँ दी है। हमसे तो अब यह बर्दाश्त नहीं होता।
गुलजारी—आखिर कोइ कहॉँ तक बर्दाश्त करे। मैने तो इस अखबार का पढ़ना तक छोड दिया।
झम्मनलाल—गोया अपने अपनी समझ में बड़ा भारी काम किया। अजी आपकाधर्म यह है कि उन लेखों को काटिए, उनका उत्तर दीजिए। मै आजकल एक कवित्त रच रहा हूँ, उसमे मैंने इनकों ऐसा बनाया है कि यह भी क्या याद करेंगे।
कमलाप्रसाद—बाबू अमृतराय ऐसे अधजीवे आदमी नहीं है कि आपके कवित, चौपाई से डर जाऍं। वह जिस काम में लिपटते है सारे जी से लिपटते है।
झम्मन०—हम भी सारे जी से उनके पीछे पड़ जाऍंगे। फिर देखे वह कैसे शहर मे मुँह दिखाते है। कहो तो चुटकी बजाते उनको सारे शहर में बदनाम कर दूँ।

 

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