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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध
पेज- 70
आठ बजे रात को जब बाबू अमृतराय सैर रिके आये तो कोई टमटम थानेवाला न था। चारों ओर घूम-घूम कर पुकारा। मगर किसी आहट न पायी। महाराज, कहार, साईस सभी चल दिये। यहाँ तक कि जो साईस उनके साथ था वह भी न जाने कहॉँ लोप हो गया। समझ गये कि दुष्टों ने छल किया। घोड़े को आप ही खोलने लगे कि सुखई कहार आता दिखाई दिया। उससे पूछा—यह सब के सब कहॉँ चले गये? सुखई—(खॉँसकर) सब छोड़ गये। अब काम न करैगे।
अमृतराय—तुम्हें कुछ मालूम है इन सभों ने क्यों छोड़ दिया?
सुखई—मालूम काहे नाहीं, उनके बिरादरीवाले कहते हैं इनके यहॉँ काम मत करो। अमृतराय राय की समझ में पूरी बात आ गयी कि विराधियों ने अपना कोई और बस न चलते देखकर अब यह ढंग रचा है। अन्दर गये तो क्या देखते हैं कि पूर्णा बैठी खाना पका रही है। और बिल्लो इधर-उधर दौड़ रही है। नौकरों पर दॉँत पीसकर रह गये। पूर्णासे बोले---आज तुमको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा।
पूर्णा—(हँसकर) इसे आप कष्ट कहते है। यह तो मेरा सौभाग्य है। पत्नी के अधरों पर मन्द मुसकान और ऑंखों में प्रेम देखकर बाबू साहब के चढ़े हुए तेवर बदल गये। भड़कता हुआ क्रोध ठंडा पड़ गया और जैसे नाग सूँबी बाजे का शब्द सुनकर थिरकने लगता है और मतवाला हो जाता उसी भॉँति उस घड़ी अमृतराय का चित्त भी किलोलें करने लगा। आव देखा न ताव। कोट पतलून, जूते पहने हुए रसोई में बेधड़क घुस गये। पूर्णा हॉँ,हॉँ करती रही। मगर कौन सुनता है। और उसे गले से लगाकर बोले—मै तुमको यह न करने दूगॉँ।
पूर्णा भी प्रति के नशे में बसुध होकर बोली-मैं न मानूँगी।
अमृत०—अगर हाथों में छाले पड़े तो मैं जुरमाना ले लूँगा।
पूर्णा—मैं उन छालों को फूल समझूँगी, जुरामान क्यों देने लगी।
अमृत०—और जो सिर में धमक-अमक हुई तो तुम जानना।
पूर्णा-वाह ऐसे सस्ते न छूटोगे। चन्दन रगड़ना पड़ेगा।
अमृत—चन्दन की रगड़ाई क्या मिलेगी।
पूर्णा—वाह (हंसकर) भरपेट भोजन करा दूँगी।
अमृत—कुछ और न मिलेगा?
पूर्णा—ठंडा पानी भी पी लेना।
अमृत—(रिसियाकर) कुछ और मिलना चाहिए।
पूर्णा—बस,अब कुछ न मिलेगा।
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