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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध
पेज- 71
यहॉँ अभी यही बातें हो रही थीं कि बाबू प्राणनाथ और बाबू जीवननाथ आये। यह दोनों काश्मीरी थे और कालिज में शिक्षा पाते थे। अमृतराय क पक्षपातियों में ऐसा उत्साही और कोई न था जैसे यह दोनों युवक थे। बाबू साहब का अब तक जो अर्थ सिद्ध हुआ था, वह इन्हीं परोपकारियों के परिश्रम का फल था। और वे दोनों केवल ज़बानी बकवास लगानेवाली नहीं थे। वरन बाबू साहब की तरह वह दोनों भी सुधार का कुछ-कुछ कर्तव्य कर चुके थे। यही दोनों वीर थे जिन्होंने सहस्रों रुकावटों और आधाओं को हटाकर विधवाओं से ब्याह किया था। पूर्णा की सखी रामकली न अपनी मरजी से प्राणनाथ के साथ विवाह करना स्वीकार किया था। और लक्ष्मी के मॉँ-बॉँप जो आगरे के बड़े प्रतिष्ठत रईस थे, जीवननाथ से उसका विवाह करने के लिए बनारस आये थे। ये दोनों अलग-अलग मकान में रहते थे।
बाबू अमृतराय उनके आने की खबर पाते ही बाहर निकल आये और मुसकराकर पूछा—क्यों, क्या खबर है?
जीवननाथ—यह आपके यहॉँ सन्नाटा कैसा?
अमृत०—कुछ न पूछो, भाई।
जीवन०—आखिर वे दरजन-भर नौकरी कहाँ समा गये?
अमृत०—सब जहन्नुम चले गये। ज़ालिमों ने उन पर बिरादरी का दबाव डालकर यहॉँ से निकलवा दिया।
प्राणनाथ ने ठट्ठा लगाकर काह---लीजिए यहॉँ भी वह ढंग है।
अमृतराय—क्या तुम लोगों के यहॉँ भी यही हाल है।
प्राणनाथ---जनाब, इससे भी बदतर। कहारी सब छोड़ भागो। जिस कुएसे पानी आता था वहॉँ कई बदमाश लठ लिए बैठे है कि कोई पानी भरने आये तो उसकी गर्दन झाड़ें।
जीवननाथ—अजी, वह तो कहो कुशल होयी कि पहले से पुलिस का प्रबन्ध कर लिया नहीं तो इस वक्त शायद अस्पताल में होते।
अमृतराय—आखिर अब क्या किया जाए। नौकरों बिना कैसे काम चलेगा?
प्राणनाथ—मेरी तो राय है कि आप ही ठाकुर बनिए और आप ही चाकर।
ज़ीवनाथ—तुम तो मोटे-ताजे हो। कुएं से दस-बीस कलसे पानी खींच ला सकते हो।
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