मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध

पेज- 72

प्राणनाथ—और कौन कहे कि आप बर्तन-भॉँडे नहीं मॉँज सकते।
अमृत-अजी अब ऐसे कंगाल भी नहीं हो गये हैं। दो नौकर अभी हैं, जब तक इनसे थोड़ा-बहुत काम लेंगे। आज इलाके पर लिख भेजता हूँ वहॉँ दो-चार नौकर आ जायँगे।
जीवन—यह तो आपने अपना इन्तिज़ाम किया। हमारा काम कैसे चले।
अमृत.—बस आज ही यहॉँ उठ आओ, चटपट।
जीवन.—यह तो ठीक नहीं। और फिर यहॉँ इतनी जगह कहॉँ है?
अमृत.—वह दिल से राज़ी हैं। कई बेर कह चुकी हैं कि अकेले जी घबराता है। यह ख़बर सुनकर फूली न समायेंगी।
जीवन—अच्छा अपने यहॉँ तो टोह लूँ।
प्राण—आप भी आदमी हैं या घनचक्कर। यहॉँ टोह लूँ वहॉँ टोह लूँ। भलमानसी चाहो तो बग्घी जोतकर ले चलों। दोनों प्राणियों को यहॉँ  लाकर बैठा दो। नहीं तो जाव टोह लिया करो।
अमृत—और क्या, ठीक तो कहते हैं। रात ज्यादा जायगी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी।
जीवन—अच्छा जैसी आपकी मरज़ी।
दोनों युवक अस्तबल में गये। घोड़ा खोला और गाड़ी जोतकर ले गये। इधर अमृतराय ने आकर पूर्णा से यह समाचार कहा। वह सुनते ही प्रसन्न हो गई और इन मेहमानों के लिए खाना बनाने लगी। बाबू साहब ने सुखई की मदद से दो कमरे साफ़ कराये। उनमें मेज, कुर्सियाँ और दूसरी जरुरत की चीज़ें रखवा दीं। कोई नौ बजे होंगे कि सवारियॉँ आ पहुँचीं। पूर्णा उनसे बड़े प्यार से गले मिली और थोड़ी ही देर में तीनों सखियॉँ बुलबुल की तरह चहकने लगीं। रामकली पहले ज़रा झेंपी। मगर पूर्णा की दो-चार बातों न उसका हियाव भी खोल दिया।
थोड़ी देर में भोजन तैयार हा गया। ओर तीनों आदमी रसोई पर गये। इधर चार-पॉँच बरस से अमृतराय दाल-भात खाना भूल गये थे। कश्मीरी बावरची तरह तरह क सालना, अनेक प्रकार के मांस खिलाया करता था और यद्यपि जल्दी में पूर्णा सिवाय सादे खानों के और कुछ न बना सकी थी, मगर सबने इसकी बड़ी प्रशंसा की। जीवननाथ और प्राणनाथ दोनों काशमीरी ही थे, मगर वह भी कहते थेकि रोटी-दाल ऐसी स्वादिष्ट हमने कभी नहीं खाई।

 

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