मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध
पेज- 73
रात तो इस तरह कटी। दूसर दिन पूर्णा ने बिल्लो से कहा कि ज़रा बाज़ार से सौदा लाओ तो आज मेहानों को अच्छी-अच्छी चीज़े खिलाऊँ। बिल्लो ने आकर सुखई से हुक्म लगाया। और सुखई एक टोकरा लेकर बाज़ार चले। वह आज कोई तीस बरस से एक ही बनिये से सौदा करते थे। बनिया एक ही चालाक था। बुढ़ऊ को खूब दस्तूरी देता मगर सौदा रुपये में बारह आने से कभी अधिक न देता। इसी तरह इस घूरे साहु ने सब रईसों को फॉँसा रक्खा था। सुखई ने उसकी दूकान पर पहुँचते है टाकरा पटक दिया और तिपाई पर बैठकर बोला—लाव घूरे, कुछ सौदा सुलुफ तो दो मगर देरी न लगे।
और हर बेर तो घूरे हँसकर सुखई को तमाखू पिलाता और तुरन्त उसके हुक्म की तामील करने लगता। मगर आज उसने उसको और बड़ी रुखाई से देखकर कहा—आगे जाव। हमारे यहॉँ सौदा नहीं है।
सुखई—ज़रा आदमी देख के बात करो। हमें पहचानते नहीं क्या?
घूरे—आगे जाव। बहुत टें-टें न करो।
सुखई-कुछ मॉँग-वॉँग तो नहीं खा गये क्या? अरे हम सुखई हैं।
घूरे—अजी तुम लाट हो तो क्या? चलो अपना रास्ता देखो।
सुखई—क्या तुम जानते हो हमें दूसरी दुकान पर दस्तूरी न मिलेगी? अभी तुम्हरे सामने दो आने रूपया लेकर दिखा देता हूँ।
घूरे—तूम सीधे से जाओगे कि नहीं? दुकान से हटकर बात करो। बेचारा सुखई साहु की सइ रुखाई पर आर्श्चय करता हुआ दूसरी दुकान पर गया। वहॉँ भी यही जवाब मिला। तीसरी दूकान पर पहुँचा। यहॉँ भी वही धुतकार मिली। फिर तो उसने सारा-बाज़ार छान डाला। मगर कहीं सौदा न मिला। किसी ने उसे दुकान पर खड़ा तक होने न दिया। आखिर झक मारकर-सा मुँह लिये लौट आया और सब समाचार कह। मगर नमक-मसाले बिना कैसे काम चले। बिल्लो ने वहा, अब् की मैं जाती हूँ। देखूँ कैसे कोई सौदा नहीं देता। मगर वह हाते ज्यों ही बाहर निकली कि एक आदमी उसे इधर-उधर टहलता दिखायी दिया। बिल्लो को देखते ही वह उसके साथ हो लिया और जिस जिस दुकान पर बिल्लो गई वह भी परछाई की तरह साथ लगा रहा। आखिर बिल्लो भी बहुत दौड़-धूप कर हाथ झुलाते लौट आयी। बेचरी पूर्णा ने हार कर सादे पकवान बनाकर धर दिये।
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