मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना

पेज- 85

बिल्लो—चिट्ठी कहॉँ से देती? हमको अन्दर बुलाते डरती थीं। देखते ही रोने लगी और कहा—बिल्लो, मैं क्या करुँ, मेरा जी यहॉँ बिलकुल नहीं लगता। मैं पिछली बातें याद करके रोया करती हूँ। वह (दाननाथ) कभी जब मुझे रोते देख लेते हैं तो बहुत झल्लाते हैं। एक दिन मुझे बहुत जली-कटी सुनायी और चलते-समय धमका कर कहा—एक औरत के दो चाहनेवाले कदापि जीते नहीं रह सकते। यह कहकर बिल्लो चुप हो गयी। पूर्णा के समझ में पूरी बात न आयी। उसने कहा—चुप क्यों हो गयी? जल्दी कहो, मेरा दम रुका हुआ है।
बिल्लो—इतना कहकर वह रोने लगी। फिर मुझको नजदीक बुला के कान में कहा—बिल्लो, उसी दिन से मैं उनके तेवर बदले हुए देखती हूँ। वह तीन आदमियों के साथ लेकर रोज शाम को न जाने कहॉँ जाते हैं। आज मैंने छिपकर उनकी बातचीत सुन ली। बारह बजे रात को जब अमृतराय पर चोट करने की सलाह हुई है। जब से मैंने यह सुना है, हाथों के तोते उड़े हुए हैं। मुझ अभागिनी के कारण न जाने कौन-कौन दुख उठायेगा।
बिल्लो की ज़बानी यह बातें सुनकर पूर्णा के पैर तले से मिट्टी निकल गयी। दनानाथ की तसवीर भयानक रुप धारण किये उसकी ऑंखों के सामने आकर खड़ी हो गयी।
वह उसी दम दौड़ती हुई बैठक में पहुँची। बाबु अमृतराय का वहॉँ पता न था। उसने अपना माथा ठोंक बिल्लो से कहॉँ—तुम जाकर आदमियों कह दो। फाटक पर खड़े हो जाए। और खुद उसी जगह एक कुर्सी पर बैठकर गुनने लगी कि अब उनको कैसे खबर करुँ कि इतने में गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनायी दी। पूर्णा का दिल बड़े जोर से धड़-धड़ करने लगा। वह लपक कर दरवाज़े पर आयी और कॉँपती हुई आवाज़ से पुकार बोली—इतनी देर कहॉँ लगायी? जल्दी आते क्यों नहीं?
अमृतराय जल्दी से उतरे और कमरे के अन्दर कदम रखते ही पूर्णा ऐसे लिपट गयी मानो उन्हें किसी के वार से बचा रही है और बोली—इतनी जल्दी क्यों आये, अभी तो बहुत सवेरा है।
अमृतराय—प्यारी, क्षमा करो। आज जरा देर हो गयी।
पूर्णा—चलिए रहने दीजिए। आप तो जाकर सैर-सपाटे करते हैं। यहॉँ दूसरों की जान हलकान होती हैं
अमृतराय—क्या बतायें, आज बात ऐसी आ पड़ी कि रुकना पड़ा। आज माफ करो। फिर ऐसी देर न होगी।

 

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